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________________ पंचम खण्ड | १८० असमर्थ है इसीलिए नाना प्रकार के अंग-संचालन और क्रियाकलापों में वह स्रोत शरीर से बाहर निकल जाता है और विविध कर्मों में इस अतिरिक्त शक्ति का क्षरण होता है। हठयोगप्रदीपिकाकार ने ठीक ही कहा है "हठस्य प्रथमांगत्वादासनं पूर्वमुच्यते । कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चांगलाघवम् ॥" अर्थात् हठयोग के प्रथम अंग को प्रासन कहा जाता है। शरीर में स्थिरता, आरोग्य और स्फति लाने के लिए आसनों का अभ्यास करना चाहिए । इसीलिए योगसत्रकार ने भी 'स्थिरसुखमासनम्' कहा है। शरीर की चंचलता को अवरुद्ध करके उसे शांत तथा निस्पंद बनाने का अभिप्राय है प्राणशक्ति का सर्वथा सम्पूर्णतः अपने में धारण करना । इससे शरीर हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ, निरोग और सुन्दर बन जाता है। शरीर स्थिर हो जाने के पश्चात् हटयोग में शारीरिक शुद्धि की ओर ध्यान अग्रसर किया जाता है। शरीर में अनेक प्रकार के मल विद्यमान रहते हैं जिनके कारण नाड़ीमण्डल दूषित हो जाता है। मलशोधनकर्मों के द्वारा शरीर को सर्वथा मलरहित बनाने का प्रयास किया जाता है जिससे नाडीसंस्थान शुद्ध होकर श्वास-प्रश्वास क्रिया को अबाध गति प्रदान करता है। इसीको प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम द्वारा प्राणशक्ति वशीभूत कर प्राणवायू को संयत किया जाता है। शरीर में भरे हुए स्थूल रूप से दिखाई देने वाले विजातीय द्रव्य ही मल कहलाते हैं जिन्हें शरीर से निष्कासित करने के लिए हठयोग में षट कर्म का मलशोधन विधान रचा गया है । यथा धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिक तथा। कपालभातिश्चैतानि षट कर्माणि प्रचक्षते॥ -हठयोगप्रदीपिका अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि तथा कपालभाति ये छः मलशोधक कर्म कहलाते हैं। इनमें भस्त्रिका, गजकरणी, बाघी, शंखप्रक्षालन आदि कर्मों को जोड़ कर दस मलशोधककर्मों का विधान हठयोग में सम्मत है। मलशोधनकर्मों के द्वारा प्राणशक्ति प्रबल हो उठती है, अत्यन्त वेगवती हो जाती है जिससे साधक अनेकविध अद्भत कार्यों को सम्पन्न करने की सामर्थ्य संजो लेता है। उत्तम स्वास्थ्य, उद्दाम यौवन और असाधारण रूप से सुदीर्घ आयु प्राप्त कर लेता है। कायासिद्धि के अलावा प्राणायाम से एक और श्रेष्ठ लाभ होता है वह है सर्पाकार सुप्त कुण्डलिनी शक्ति का जागरण । कुण्डलिनी-जागरण के पश्चात् साधकयोगी को अकत शक्ति, अलभ्य सिद्धियां, ऐश्वर्य उपलब्ध हो जाते हैं। साथ ही अकल्पित जगत्, अदृश्य स्तर, अद्भुत दृष्टि तथा विविध क्रियाओं के रहस्य प्रकट हो जाते हैं। अनेक प्रकार की कृच्छ एवं कठोर साधनाएँ उसके लिए सुगम हो जाती हैं। हठयोग की उपलब्धियां साधारण मानव को अत्यधिक लुभाती एवं प्रभावित करती हैं। स्थल और भौतिक शरीर पर असाधारण अधिकार हो जाता है। भौतिक प्रकृति का उद्देश्य केवल भौतिकजीवन की सुरक्षा, अक्षरित शरीर, अपारशक्ति का प्राधार तथा भौतिक जीवन का अधिक से अधिक उपभोग करने की सामर्थ्य प्राप्त करना है। किन्तु ये सब प्राप्त तो होती हैं किन्तु इसके लिए असाधारण मूल्य चुकाना पड़ता है। इसकी जटिल प्रक्रियाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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