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________________ जैन-योग का एक महान् ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १३५ प्राचार्य शुभचन्द्र के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में उपर्युक्त कथा के अतिरिक्त और कोई विशेष ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती। जैसा पहले उल्लेख किया गया है, भर्तृहरि के जीवन-वत्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रमाणभूत आधार नहीं है। भर्तृहरि के वैराग्यशतक का गहराई से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उनका झुकाव तितिक्षा-प्रधान जैनधर्म की ओर विशेष था। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है "प्रभो! मेरे जीवन में ऐसा समय कब आएगा, जब मैं एकाकी, स्पहाशून्य, शान्त, हाथ को ही पात्र के रूप में प्रयुक्त करने वाला, दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझने वाला होकर कर्मों के विनाश में समर्थ बनूंगा।" इस प्रकार के तितिक्षु जीवन की प्रशंसा करते हुए उन्होंने एक स्थान पर और लिखा है "वे पुरुष धन्य हैं, जिनके हाथ ही पवित्र पात्र हैं, जो सदा भ्रमण करते रहते हैं, भिक्षा ही जिनका अविनश्वर भोजन है, दशों दिशाएं ही जिनका विस्तृत तथा स्थिर वस्त्र है, विशाल पृथ्वी ही जिनका बिछौना है, जिनकी मानसिक परिणति अनासक्ति-युक्त है, जिन्हें परिग्रह, सांसारिक धन, वैभव आदि में जरा भी आसक्ति नहीं है, जिन्हें प्रात्म-रमण में ही परितोष है, दीनता-किसी के पागे हाथ फैलाना जैसे दुःखों से जो सर्वथा उन्मुक्त हैं, ऐसे ही सत्पुरुष अपने कर्मों का उन्मूलन करते हैं।" इन प्रसंगों से निविवाद रूप से यह प्रकट होता है कि भर्तृहरि वैसे उच्च त्यागमय जीवन की ओर बहुत ही आकृष्ट थे, जो एक दिगम्बर जैन श्रमण का होता है। भर्तृहरि का वैराग्यशतक एक ऐसी वैराग्य और त्याग प्रधान रचना है, वैचारिक दृष्टि से जिसका जैन सिद्धान्तों से काफी नैकट्य है। वैराग्यशतक और ज्ञानार्णव के तुलनात्मक अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि दोनों के अनेक श्लोक भाव की दृष्टि से बहुत नजदीक हैं। वैराग्यशतक में एक स्थान पर लिखा है "पर्वत की शिला जिनकी शय्या है, गुफा जिनका घर है, वक्षों की छाल जिनका वस्त्र है, पक्षी जिनके मित्र हैं, वृक्षों के कोमल फलों से जिनका जीवन चलता है, झरनों का जल ही जिनका समुचित पेय है, विद्यारूपी अंगना में जिनको अनुराग है, जिन्होंने सेवक के रूप में किसी के सामने सिर पर अंजलि नहीं बांधी-सिर झुकाकर हाथ नहीं जोड़े। मैं मानता हूँ, वे ही वास्तव में परम ऐश्वर्यशाली हैं।"3 १. एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो ! संभविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षयः ।। -वैराग्यशतक ८९ २. पाणिः पात्रं पवित्र भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्न, विस्तीर्ण वस्त्रमाशादशकमचपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी । येषां, नि:संगतांगीकरणपरिणतस्वान्तसन्तोषिणस्ते, धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकरा: कर्म निर्मूलयन्ति ।। -वैराग्यशतक ९९ शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वचः, सारंगा: सुहृदो ननु क्षितिरुहां वत्तिः फलै : कोमलैः । येषां निर्भरमम्बुपानमुचितं रत्यै तु विद्यांगना, मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः ।। वैराग्यशतक १० आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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