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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / २०२ चौदह हजार साधु व छत्तीस हजार साध्वियाँ सम्पूर्ण रूप से परिग्रह के त्यागी बने तो लाखों श्रावक / श्राविकाओं ने परिग्रह की मर्यादा की। आज भी महावीर को मानने वाले हजारों साधु साध्वी स्वयं अपरिग्रही हैं । किन्तु उनके तथाकथित श्रावक श्राविकायें इस सिद्धान्त को केवल शाब्दिक नारों से तो मानती हैं, पर वस्तुतः वे परिग्रह में अधिक से अधिक उलझने व भोगउपभोग की सामग्री अधिक से अधिक अन्य समाजों की भाँति इकट्ठी करने में लगे हुए हैं। दुर्भाग्य बात यह है कि अपरिग्रही साधु साध्वी भी इन सेठ साहूकारों के घेरों में प्रविष्ट होने लगे हैं । अप्रत्यक्ष रूप में उन ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों को जिनमें धनाढ्य, राजनेता व इनके दलाल कार्यकर्तागण की शह दे रहे हैं और बदले में उन लोगों से जयजयकार करवा कर वाहवाही पाते हैं। जो भी हो महावीर के इस सिद्धान्त पर आधारित योजना ही प्रभाव को दूर कर सम वितरण में कारगर हो सकती है। आज की राशन प्रणाली व अनेक प्रकार के नियन्त्रण सम वितरण के लिए बने हैं किन्तु वे व्यक्ति की स्वयं इच्छा से नहीं, शासन व कानून के दबाब से हैं। इसीलिए वे अधिकांश असफल रहते हैं। महावीर का सिद्धान्त स्वेच्छा से होने के कारण जितना ग्रहण किया जाता है प्रायः पूर्ण सफल रहता है। वर्तमान काल की दूसरी बड़ी बुराई अन्याय की है। सबल अपने स्वार्थ में अच्छे होकर निर्बलों के परिश्रम के फल को हथियाने में लगे हुए हैं, निर्बल इसे मजबूरी से सहन करते हैं। सबलों की पूरी व्यवस्था निर्बलों को पशु व निर्जीव मानने की बनी हुई है। उनके मन में निर्बलों के प्रति कुछ हया दया भी नहीं है । निर्बलों के पास शक्ति नहीं कि वे सबलों के पाशfor बल का मुकाबला कर सकें। इस स्थायी ( सामाजिक एवं व्यक्तिगत ) अन्याय के प्रतीकार महात्मा गांधी ने हिंसा के लिए महावीर ने पहिंसा का व्यावहारिक दर्शन संसार को दिया। को एक प्रमोष प्रस्त्र के रूप में प्रयोग किया व सिद्धि प्राप्त की अहिंसा का दर्शन अन्याय करने वाले को अन्याय करने से बचाता है तथा अन्याय सहने वाले को शक्तिशाली बनाकर प्रतीकार का अवसर देता है, भ्रतः यह दोनों के लिये हितकर एवं कल्याणकारी है महिसा की साधना करने वाला व्यक्ति निर्वैर हो जाता है। वह अहिसा की शक्ति को पाकर निर्भय भी हो जाता है । महावीर के इस अहिंसा के सिद्धान्त का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ सामन्त, ब्राह्मण, किसान व अछूत समझे जाने वाले लोगों ने महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की मानवीय गुणों को विकसित किया। यहाँ तक कि प्राणिमात्र को हिंसा से दूर रहकर उन लोगों ने प्रेम, करुणा व शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने की ओर प्रयाण किया। आज विश्व भर में यह मान्यता घर कर रही है कि अन्याय व उत्पीड़न से मुक्ति पाने का ग्रहिंसा ही एकमात्र प्रभावी प्रस्त्र है। तीसरी बुराई जो व्याप्त है वह अज्ञान की है। वैसे देखा जाय तो ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और ज्ञान एवं अज्ञान की मध्यरेखा भी इतनी क्षीण होती है कि ज्ञान को अज्ञान और प्रज्ञान को ज्ञान भाषित किया जाता है। सीधी और सरल परिभाषा करें तो सत्य का साक्षात्कार करना ज्ञान है । सत्य शाश्वत है । सत्य अनन्त है । सत्य का साक्षात्कार किये जाने पर भी उसका प्रतिपादन केवल प्रांशिक रूप में ही किया जा सकता है। कोई सत्यद्रष्टा किसी सत्यांश का प्रतिपादन अपेक्षित समझता है तो कोई ग्रन्य किसी अन्य सत्यांश का । शब्द में इतनी शक्ति नहीं कि सत्य के सभी पर्यायों का कथन कर सके। यही कारण है कि भिन्न-भिन्न सत्यांश हमारे सामने पाते हैं। वे सत्यांश कभी-कभी प्रज्ञान वन जाते हैं जब उन्हें पूर्ण सत्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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