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________________ सत्कामनाएँ 0 साध्वीरत्न श्री झणकारकुवरजी म. सा. जैनधर्म में गुणोत्कीर्तन तथा गुणोजनों के सम्मान-सत्कार का बहुत बड़ा महत्त्व है। इससे मन पवित्र बनता है, भावना में उत्कर्ष का संचार होता है, हृदय में ऋजुता एवं मृदूता का उद्भास होता है । यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि जैन-जगत् की अनुपम निधि, साधना को दिव्यमूर्ति महिमामयी महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का साधुसाध्वोवृन्द तथा श्रावक-श्राविका-समाज की ओर से उनके श्रमणी-जीवन की अर्धशताब्दी की सुन्दरतम सम्पन्नता की स्वर्णिम वेला में अभिनन्दन किया जा रहा है । वास्तव में महासतीजी गुणों में हिमाद्रि की ज्यों अत्यन्त उच्च हैं। उनका अभिनन्दन ज्ञान, साधना, संयम और सेवा का अभिनन्दन है। विक्रम संवत २०३७ का प्रसंग है। परमाराध्य गुरुदेव यूवाचार्यप्रवर पंडितरत्न श्री मिश्रीमलजी म. सा. "मधुकर" का मेड़ता सिटी में चातुर्मासिक प्रवास था । निःसंदेह यह मेरा परम सौभाग्य था-~-तब मुझे भी उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। उस चातुर्मास में भाइयों तथा बहिनों में तपस्याएं बहुत हुईं। एक भाई ने ७१ दिन का उपवास किया तथा एक बहिन ने ३१ दिन का । उनका वहाँ श्रावकसमाज की ओर से बड़े ठाटबाट के साथ अभिनन्दन हुअा, जिसे देखकर मैं मन ही मन बड़ी प्रसन्न हुई। कुछ देर बाद मैं गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुई । मैंने उनके समक्ष अपनी जिज्ञासा उपस्थित की-"गुरुवर ! अभिनन्दन किनका किया जाना चाहिए ?" यह सुनकर गुरु महाराज पहले तो कुछ मुस्कराये, फिर कहने लगे--साध्वीजी ने अच्छा प्रश्न किया है। इस बात की जिज्ञासा बहुत लोगों के मन में थी, जो साध्वीजी द्वारा प्रकट हो रही है। इस सम्बन्ध में तथ्य यह है-अपने यहाँ आगमों में वर्णन प्राता है कि अभिनन्दन उनका किया जाए, जो धीर, वीर, गंभीर, त्यागी एवं वैरागी हों। वैसे व्यक्ति ही वास्तव में अभिनन्दनीय होते हैं। गुरुदेव द्वारा उक्त प्रसंग पर प्रकट किये गये उद्गार मुझे आज बहुत स्मरण हो रहे हैं । महासतीजी श्रीउमरावकंवरजी महाराज में धीरता, वीरता, गंभीरता, त्याग एवं वैराग्य आदि अनेकानेक उत्तमोत्तम गुण हैं। आप गुणरूप परमोत्कृष्ट माला के एक बहमुल्य मनके सदृश हैं। अापका अभिनंदन निश्चय ही नारी के उस चरमोत्कर्ष का अभिनंदन है, जिसकी उच्चता की अट्टालिका प्राध्यात्मिक साधना की पृष्ठभूमि पर खड़ी है, जिसमें शील, सच्चारित्य, समाधि और ध्यान की पाषाण-पट्टिकाएँ तथा ईंटें लगी हैं। इस गौरव-गरिमामयी महान् नारी की महनीयता, दिव्यता, सफलता, चारित्यवत्ता उन्नति के उच्चतम शिखर का संस्पर्श करे, इसी भावना के साथ मैं हृदय से इनका अभिनंदन, सम्मान और समादर करती हूँ। तह। आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की प्रथम खण्ड / १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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