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________________ प्राकृत बोलियों की सार्थकता / २४९ "प्राकृतेति । सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरना हितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सेव वा प्राकृतम् वा प्राक् पूर्वकृतं प्राक्कृतं बालमहिलादिसुबोधं सकल। भाषानिबंधनभूतं वचनमुच्यते ।" -- प्राकृत शब्द का अर्थ है व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन स्वाभाविक वचन का व्यापार, उससे जो उत्पन्न हो अथवा वही प्राकृत है.... प्रथवा जो पहले हो उसे प्राकृत कहते हैं, जो बालक, महिला श्रादि के लिये सुबोध हो, यह समस्त भाषाओं की मूल है ।" भरत के नाट्यशास्त्र (१८.२ ) में प्राकृत को भाषा का अपभ्रष्ट रूप कहा है जो संस्कारगुण से वर्जित है, और जिसे अनेक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है ( नानावस्थान्तरात्मक ) । इससे भी प्राकृत बोलियों की प्रादेशिकता ध्वनित होती है। उल्लेखनीय है कि १२वीं शताब्दी के हेमचन्द्र आदि कतिपय पुरातन विद्वान् प्रकृति का अर्थ प्राकृतिक अथवा स्वभावसिद्ध न मानकर, संस्कृत करते हैं और प्राकृत को संस्कृत से निष्पन्न स्वीकार करते हैं ( प्रकृति संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्, हेमचन्द्र, सिद्ध शब्दानुशासन, १.१. की वृत्ति ) । क्या वैदिक आर्यों की बोली को प्राकृत कहा जा सकता है ? इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न विचारणीय है और वह यह कि वेदों की रचना के पूर्व वैदिक आयों की कौन सी बोली थी जिसमें वे अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे ? दुर्भाग्य से इस जन बोली का स्वरूप निर्धारित करने के हमारे पास साधनों का प्रभाव है। यद्यपि इस बोली के आधार पर वैदिक संहिताओंों की भाषा की रचना की गई, फिर भी जाहिर है कि यह भाषा वैदिक आर्यों की जन-बोली से कुछ भिन्न रही होगी। क्या इस जन-बोली को 'प्राकृत' नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता ? (यहाँ 'प्राकृत' का अर्थ वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत लेना आवश्यक नहीं)। पूर्वकालीन वैदिक युग के सामान्य जनों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में भौगोलिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के कारण समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे, और अनेक शताब्दियों के पश्चात् जन सामान्य की बोली का जो रूप सामने धाया, वह बोली प्राकृत कही जाने लगी। प्राकृत का अर्थ है सामान्य जन की बोली, सहज वचन व्यापार, जो संस्कृत की भाँति व्याकरण धादि के संस्कार से रहित है, जैसा कहा चुका है। कहा जा सकता है कि संस्कृत का अर्थ यदि वेदपूर्व अथवा वैदिक काल में बोली जाने वाली भाषा किया जाये तो प्राकृत की संस्कृत - निष्पन्नता सिद्ध हो सकती है । इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि वेदकालीन अनगढ़ एवं अपरिमार्जित भाषा को परिमार्जित और संस्कारित करने के पश्चात् ही शिष्टजनों की भाषा संस्कृत निष्पन्न हुई है, अतएव वेदपूर्व अथवा वैदिक काल की सामान्य बोली को संस्कृत नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता । भाषाविज्ञान के विकासक्रम में दोनों का अलग-अलग स्थान है और दोनों का उद्भवस्थान समान होने पर भी दोनों के दो भिन्न-भिन्न पहलू हैं। १. धनिक, सिंहदेव गणि, नरसिंह, लक्ष्मीधर, वासुदेव, त्रिविक्रम, मार्कण्डेय आदि ने भी यही मान्यता स्वीकार की है, देखिये डॉक्टर के. सो. प्राचार्य, मार्कण्डेयकृत प्राकृत सर्वस्व की भूमिका, पू० ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो टोवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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