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________________ पातंजल योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन | १९ स्थिर हो जाने से संसार के समस्त पदार्थों का ज्ञान प्रत्यक्ष की तरह हो जाता है। मन को वश में करके भावना करने वाले मनुष्य की अविद्या का क्षण मात्र में विनाश हो जाता है और कषाय क्षीण हो जाती है। प्राणायाम से कामदेव रूप विष और मन पर विजय प्राप्त हो जाती है और समस्त रोगों का क्षय हो जाता है तथा शरीर में स्थिरता आ जाती है। परमात्मप्रकाश के टीकाकार ब्रह्मदेव ने भी कहा है कि कुम्भक आदि प्राणायाम से शरीर नीरोग हो जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि योगदर्शन की भाँति जैनदर्शन में भी योगियों के लिए प्राणायाम उपादेय बतलाया गया है। लेकिन दोनों की उपादेयता में अन्तर यह है कि योगदर्शन में प्राणायाम ध्यान का कारण माना गया है, लेकिन जैनदर्शन में प्राणायाम योगी के लिए कथंचित् रूप से उपादेय कहा गया है। प्राणायाम मोक्ष का साधक नहीं है, यद्यपि प्राणायाम से संसार के शुभ-अशुभ, भूत-भविष्यत् जाने जाते हैं और दूसरों के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति है। इस प्रकार लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि प्राणायाम से होती है। लेकिन यह ध्यान का कारण नहीं है। भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि श्वासोच्छ्वास के रोकने के दुःख से शरीर के नष्ट होने की संभावना होती है। प्राचार्य शुभचन्द्र भी कहते हैं कि प्राणायाम से विक्षिप्त मन स्वस्थ नहीं होता है। पवन का चातुर्य शरीर को सूक्ष्म, स्थूलादि करने का साधन है, इसलिए जो लोग मुक्ति चाहते हैं उनके लिए विघ्न का कारण है। प्राणायाम से आत्मा को संदेह और पीड़ा होती है। प्राणायाम से प्राणों को रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा से प्रार्तध्यान होता है और प्रार्तध्यान से तत्त्वज्ञ मुनि अपने लक्ष्य से भष्ट हो जाता है। क्योंकि प्रार्तध्यान संसार का कारण है। हेमचन्द्र ने भी यहो कहा है।६ ब्रह्मदेव ने भी कहा है कि प्राणायाम में वायु का धारण इच्छा-पूर्वक किया जाता है, इच्छा मोह से उत्पन्न विकल्प है और मोह का कारण भी है। वायु धारण करने से मुक्ति नहीं मिल सकती है, क्योंकि वायु धारण करना शरीर का धर्म है, प्रात्मा का नहीं है। अतः प्राणायाम मोक्ष का कारण नहीं है।' प्रत्याहार-योग का पांचवां अंग प्रत्याहार है। पातंजल योग की तरह जैन योग में भी प्रत्याहार को उपादेय माना गया है। इन्द्रियों का यह स्वभाव होता है कि वे स्वेच्छाचारिता से अपने विषय की ओर आकृष्ट होती हैं। योगी को इन इन्द्रियों की प्रवत्ति को रोकना यावश्यक होता है। उन्हें बाह्य विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना अर्थात् मन के वशवर्ती बनाना १. स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामाबलम्बिनाम् । जगदवत्तं च नि:शेषं प्रत्यक्षमिव जायते ॥-ज्ञानार्णव २९.१४, १०१११ २. ज्ञानार्णव २९।१२, १००-१०१ ३. ब्रह्मदेव, परमात्मप्रकाश टीका, २११६२ पृष्ठ २७४ ४. भट्ट अकलंकदेव, तत्त्वार्थ. वार्तिक ९।२७।२३ पृष्ठ ६२७ ५. शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३०१४-११ ६. योगशास्त्र ६।४-५ ७. ब्रह्मदेव, परमात्मप्रकाश टीका, २११६२ पृष्ठ २७४ आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibray.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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