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________________ ध्यान निजी अनुभव | १५७ विशेष सम्पर्क सन् १९७१ से शुरू हुआ जबकि महासतीजी का चतुर्मास महामन्दिर (जोधपुर) में था। उन दिनों मेरी भावना दीक्षा लेने की बनी परन्तु स्वीकृति न मिलने से मेरे मन पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मैं प्रतिदिन आवश्यक गृहस्थ कार्य शीघ्र ही सम्पन्न कर वाकी रात-दिन का अधिकांश समय एकान्त में शास्त्र अध्ययन और चिन्तन में व्यतीत करती । चिन्तन के समय महासतीजी का चित्र मेरे सामने रहता और चिन्तन की धारा अधिकांशतः विलापमय ही होती । इनके साथ-साथ मेरे आराध्यदेव दादागुरु प्राचार्य श्री जयमल्लजी म. सा. की आकृति भी मेरे सामने रहती। इस प्रकार एकान्त में विलापमिश्रित चिन्तन करते हुए अनेक माह व्यतीत हो गये। संयोगवश इस क्रम में मुझे कुछ आभास होने लगा कि इन गुरुदेवों का वरदहस्त मेरे सिर पर है और मन को कुछ विशेष आनन्द का अनुभव होने लगा । ___महासतीजी के हमारे क्षेत्र महामन्दिर से विहार करने के पश्चात् हम हर महीने दो महीने में दर्शन करने हेतु जाते और मैं दो-तीन दिन महासतीजी की सेवा में रहती। अपने चिन्तन के अनुभव (संकेत) के बारे में चर्चा कर संतोष प्राप्त करती। अपने कार्यक्रम के अनुसार मैं हर प्रातः करीब साढ़े तीन बजे जाग जाती और सामायिक ले लेती और सूर्योदय तक शास्त्रीय बोल, जाप माला आदि का क्रम चलता और इसी क्रम के बीच अब मैंने पूज्य श्री अर्चनाजी के संकेत के आधार पर 'ध्यान' करना शुरू कर दिया और गुरुदेव के आशीर्वाद से मेरा ध्यान कुछ दिनों में लगने लगा और मुझे विशेष खुशी का अनुभव होने लगा। चतुर्मास समाप्ति के पश्चात् गुरुणीजी म. सा. नागौर की ओर पद-यात्रा कर रहे थे और रास्ते में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। मैं घर पर थी और रात को अनायास नींद टूटी और महासतीजी को बीमार समझ कर रोने लगी और चिन्तन में लीन हो गयी। इसी बीच प्रकाश हुआ और गुरुणीजी म. सा० के दर्शन हुए, उन्होंने कहा “अब मैं ठीक हूँ, तुम्हें क्या चाहिए ?" मैंने कहा, जब मैं चाहूँ तब आपके दर्शन हो जाने चाहिए, बस इसके सिवाय और कुछ नहीं चाहिए। उस दिन से आवश्यकता पड़ने पर मेरी प्रार्थना स्वीकार हो जाती है। यह गुरुणीजी म. सा० की ओर से पहला चमत्कार था । ध्यान की प्रक्रिया में शुरू-शुरू में प्रकाशीय रंग दिखाई देने लगे, करीबकरीब आधा घण्टा ध्यान लगने लगा और ध्यान करने में मेरी रुचि बढ़ने लगी। प्रात:, दोपहर और संध्या यानि तीनों समय, ध्यान करने लगी। इस विषय के संदर्भ में यह लिखना आवश्यक समझती हूँ कि मेरे घर में शान्त वातावरण, शुद्ध खानपान, कुछ वर्षों से शीलव्रत एवं संयमीजीवन, एकान्तर तप, बिना बिस्तर सोना, सामाजिक उत्सवों से अलगाव आदि का दृढ़ता से पालन और मुख्यता महासती गुरुणीजी म. सा० की विशेष कृपा से ध्यान में उनके संदेश का सुनना और इसी क्रम में आगे 'ध्यान' में अन्य संकेतों एवं घटनाओं का स्मृति-पटल पर चित्रण Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwaunelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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