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________________ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / ११५ सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। वे अनेक प्रसंगों में इन अवधारणामों के प्रति चुटीले व्यंग्य भी कसते हैं । वस्तुत: दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों का निराकरण करना हो था। सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है।' यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या-दर्शन हैं जबकि जैनदर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन है। वस्तुतः वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता है। यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दधन प्रादि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। उदाहरण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेवस्तोत्र (४४) में निम्न श्लोक प्रस्तुत करते हैं । भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥ __ यह श्लोक हरिभद्र के लोकतत्त्वनिर्णय में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है, यथा यस्य निखिलाश्च दोषा न संति, सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ वस्तुत: २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक प्राचार्यों ने जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनर्मिता उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या श्लोकों में उदरता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदारदृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन किया हो। अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दष्टियों से किया जाता है, एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दष्टि से लिखे गये ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य पालोचना करना होता है, तो वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है। १. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी पृ० ४० । धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.ord
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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