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अन्य योग साधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना | १८५
योग में साधक में तीव्र भावावेश उन्मीलित होता है जिससे वह सर्वप्रेम, सर्वसुन्दर और सर्वानन्दमयी सत्ता के साथ एकाकार हो जाना चाहता है। उसी में लीन हो जाना अभीष्ट समझता है। कर्मयोग की पद्धति जरा भिन्न है। इसमें कर्म के समस्त अहंभाव से युक्त स्वार्थपूर्ण, क्षुद्र लक्ष्यों की अपेक्षा सर्वोच्च संकल्पशक्ति की अोर समर्पण मुख्य रहता है। निष्काम भाव से कर्म करते रहने की आदत से साधक अपने अन्त:करण को इतना शुद्ध और पवित्र बना लेता है कि वह अपने सम्पूर्ण कार्यों का सच्चा कर्ता, स्वामी, संचालक एवं शासक परमेश्वर को मानने लगता है। वह तो एक यंत्र की भांति परमात्मा के आदेश का पालन मात्र करता है। कर्मों का चुनाव और उनका दिशा-निर्देश अधिकांशत: चेतन रूप में इसी सर्वोच्च शक्ति के संकल्प और वैश्वशक्ति पर छोड़ दिये जाते हैं। परिणामतः आत्मा (जीवात्मा) बाहरी क्रियाकलापों-प्रतीतियों और दृश्यमान व्यापार व प्रतिक्रियाओं के बन्धन से छुटकारा पा जाता है और सर्वोच्च सत्ता में प्रवेश करने के लिए समर्थ हो जाता है। किन्तु यह विविध मार्ग भी न्यूनतामों और दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञानमार्ग में साधक में ज्ञानवान होने का दंभ इतना छा जाता है कि वह अपने आपको कभीकभी भगवान् ही घोषित करने से नहीं चुकता । भक्तिमार्ग में साधक स्वामी-सेवकभाव से उभर नहीं पाता और कभी भी अपने आपको स्वतंत्र कर्ता घोषित करने में असमर्थ पाता है। कर्मयोग विभिन्न पूजा-पाठ, अर्चना-विधानों के घने उलझे हुए प्राडम्बर जंजाल में साधक फंस जाता है। फिर तीनों ही मार्ग अपने आप में एकाकी, एकांगी रहते हैं, क्योंकि मानवीय व्यक्तित्व ज्ञान, भावना और कर्म का समन्वित रूप है।
उक्त सभी पद्धतियों का समन्वय कर प्रयोग करना अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि मानवजीवन इतना छोटा और क्षुद्र है, इतना सक्षम और सबल नहीं है कि इन सभी का प्रयोग बारी-बारी से कर इनकी परीक्षा करे और नवनीत रूप में इनका लाभ उठाये। बिना विचार-विमर्श और विवेकाभाव की स्थिति में उन सभी पद्धतियों का संघात, समन्वय नहीं कहलाता। अतः इनके ऋमिक अभ्यास से कोई उपलब्धि नहीं हो सकती । किन्तु भारतवर्ष एक ऐसा अनूठा देश है जिसमें साधक योगी तपस्वियों ने एक ऐसी समन्वित प्रणाली को अन्वेषित करने में सफलता पायी है जिसमें सभी का यथायोग्य सामंजस्य स्थापित हो जाता है । वह विशिष्ट प्रणाली तंत्र के नाम से विख्यात है। शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर्य एवं गाणपत्य तंत्र साधना यहाँ यथेष्ट रूप में फलती-फलती रही है। दक्षिण और वाममार्ग तंत्रसाधना के दो प्रतीकात्मक आयाम रहे हैं, जिनमें ज्ञान और प्रानन्द की प्रोजमयी समन्वयी धारा प्रवाहित रही है। वाममार्ग का गलत-सलत प्रयोग कर पंचगामी मांस, मदिरा, मैथुन आदि में गुमराह वाममार्गी साधना को किसी ने भी आगे जाकर नहीं अपनाया और सच्चे अर्थों में प्रयोग कर इसे भ्रष्ट करार दे सर्वथा परित्याग कर दिया।
जैनसाधना हठयोग के उग्र तप और ध्यान की साधना की उत्कृष्ट उदाहरण है। -इसमें दिगम्बर साधनाक्रम कोई अपवाद या सुविधा लेने का हामी नहीं रहा है। सम्भवतया नाथपरम्परा और दिगम्बरजैनपरम्परा में एक ही मूल स्रोत प्रवाहित है। ये अजस्र धाराएँ हैं । श्वेताम्बर परम्परा साधक की क्षमतानुसार साधनाक्रम अपनाती है। साधनों की पवित्रता एवं तपस्या इसमें भी प्रधान रही है। वस्तुतः जैनसाधना में हठयोग, राजयोग और ध्यानयोग
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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