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________________ चतुर्थ खण्ड | ३३६ आते हैं । इनके द्वारा हिंसावृत्ति को, भ्रष्टाचार को, अनैतिकता को बल मिलता है । इसी दुष्प्रवृत्ति के कारण दहेज जैसा अजगर अपना रूप अधिकाधिक विकराल बनाता जा रहा है । अनेक कोमलांगी नववधुओं को जिंदा जलाया जाता है, उन्हें अमानवीय यातनाओं का शिकार बनाया जा सकता है। कानन बना है दहेजविरोधी, लेकिन मनुष्य की अर्थ लिप्सा पर रोक नहीं लग सकी। परिग्रह को जैनदर्शन में 'मूर्छा' कहा गया है, यही ममत्व की, आसक्ति की, लोभ की, मोह की भावना है। 'दशवकालिकसूत्र' में आसक्ति को ही परिग्रह माना गया है। लोभ मैत्री, विनम्रता, प्रेम आदि सदगुणों का नाश कर डालता है। मोहांध व्यक्ति को सन्मार्ग नहीं सूझता। आर्थिक विषमता का कारण तृष्णा है, तृष्णा कभी शांत नहीं होती। तृष्णा तृष्णा को बढ़ाती है, लोभ से लोभ पैदा होता है । इच्छानों और तृष्णाओं को बढ़ने से रोकना अपरिग्रह है। लोभासक्ति पर नियंत्रण लगाना अपरिग्रह है। अर्थ-संचय आज के युग का प्रथम ध्येय है। आर्थिक संघर्ष और विषमता ने मानव जीवन को अशांति का अभिशाप दे दिया है। अर्थजन्य विषमता से समाज बुरी तरह प्राक्रान्त है। किसी को झोंपड़पट्टी में सिर छिपाने को जगह नहीं और किसी के पास कई-कई भव्य भवन हैं। वही लोग परिग्रह को परिभाषित करते हैं; 'परि' =परितः, सब अोर से, सब दिशाओं से, 'ग्रह' = ग्रहण करना, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना, चारों हाथों से लटखसोट करना परिग्रह कहलाता है। मनुष्य परिग्रह के कारण असत्य बोलता है, चोरी करता है, दूसरे के साथ छल-कपट करता है। परिग्रह दो प्रकार का होता है-पाभ्यन्तर और बाह्य । प्राभ्यन्तर परिग्रह के अन्तर्गत माया, लोभ, मान, क्रोध, रति, मिथ्यात्व, स्त्रीवेद आदि आते हैं और बाह्य परिग्रह में मकान, खेत, वस्त्र, पशु, दास-दासी, धन-धान्य प्रादि शामिल हैं। यदि कोई निर्धन है, लेकिन उसमें धनी बनने की प्रासक्ति या मोह है तो वह परिग्रही ही माना जायेगा। ज्योतिपुरुष महावीर ने वस्तुगत परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा, वरन् उन्होंने 'मूच्छो' को हो परिग्रह कहा है न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ बुत्तं महेसिणा ॥५ उन्होंने परिमाण में, आवश्यकतानुसार वस्तु-संग्रह और धनोपार्जन की स्वीकृति दी। आवश्यकता से अधिक धनसंग्रह को उन्होंने पाप कहा है और ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता। प्रेमचन्द धनी व्यक्ति को बड़ा नहीं समझते थे, क्योंकि बड़ा आदमी बनता है शोषण से, लूट-खसोट से, बेईमानी से, दूसरों का हक छीनने से । गाँधीजी ने सम्पत्ति को जनसाधारण के प्रयोग के लिए 'ट्रस्टीशिप' का विचार दिया। वह भी धनसंग्रह या परिग्रह के विरोधी थे। मार्क्सवाद में जो अर्थ का, पदार्थों का समान वितरण करने का प्रादर्श है वही अपरिग्रह है। १. तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) ७।१७ २. दशवकालिक ६२० ३. दशवकालिक ८१३७ ४. उत्तराध्ययन ४.५ ५. समणसुत्तं ३७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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