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________________ जनदर्शन में समतावादी समाज रचना के प्रेरक तत्व / ३३५ कर्तृत्ववाद ( न्यायदर्शन), सर्वात्मवाद ( वेदान्त) में भी सामंजस्य दर्शाने का सत्प्रयास किया । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि संसार परिभ्रमण के कारण रूप रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं, उसे मैं प्रणाम करता हूँ, फिर चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महेश हो अथवा जिन हो । जैनदर्शन में समतावादी समाज के लिए वैचारिक सहिष्णुता, अनाग्रही विचारधारा बड़ा योग दे सकती है। जनदर्शन में इसी को अनेकान्तवाद कहा जाता है। श्राज सभी देशों में मताग्रह के कारण शीतयुद्ध जैसा वातावरण बना हुआ है। हमारे समाज में परिवार में मताग्रह के कारण ही द्वेष वैमनस्य तथा मनमुटाव लोगों के दिलों में भरा रहता है जो किसी भी समय प्रतिकूल हवा पाते हो श्रेध, शत्रुता, कलह, संघर्ष तथा हिंसा में परिवर्तित हो जाता है। अनेकान्तवाद ऐसा प्रेरक तत्त्व है जिसको अंगीकार कर हम अनेक समस्याओं, प्रश्नों, उलझनों को सुलझा सकते हैं । ग्रनेकान्तवाद विचारों के प्रति अनाग्रही दृष्टि का नाम है। वस्तु के अनन्य धर्मात्मक गुणों के प्रति विधेयात्मक समन्वित दृष्टि अनेकान्त कहलाती है । हमें वस्तुस्वरूप को सापेक्षता में देखना चाहिए। हम मताग्रहग्रस्त होकर वस्तुस्वरूप देखते हैं, विचार को देखते हैं, व्यक्ति को देखते हैं। पूर्वाग्रह के कारण विषमता उत्पन्न होती है। हम यदि पूर्वाग्रह छोड़कर दूसरे के मत - दृष्टिकोण को जानने-समझने की कोशिश करें तो समाज में समतावादी वातावरण बनाया जा सकता है। इसके लिए श्रावश्यक है(१) दूसरों के विचारों को सहानुभूति से सुनें, (२) दूसरे के मत के प्रति सहिष्णु बनें, (३) अपने विचार को शिष्टता से प्रस्तुत करें, (४) अपने मत के प्रति दुराग्रह न रखें, (५) व्यवहार में विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ । विभिन्न मतों - दृष्टिकोणों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करना अनेकान्तावादी का परम धर्म है । यहीं से वैचारिक धरातल पर हम समरसता और सहिष्णुता की भावना प्राप्त कर सकते हैं। जैनदर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद समन्वयवाद पर आधारित हैं, प्रत समाज में हम इनके आधार पर समतावादी समाज की संरचना करने में अपने कदम श्रागे बढ़ा सकते हैं । हमारी युवाशक्ति जो भटकी हुई है, पथभ्रष्ट है, विदृष्टि-ग्रस्त है, उसे सम्यक् दृष्टि अनेकान्तवाद द्वारा दी जा सकती है। अपनी बात को हम यों कह सकते हैं कि अहिंसा द्वारा सहअस्तित्व, विश्व बन्धुत्व की भावना जाग्रत की जा सकती है, मंत्री के राजमार्ग बनाये जा सकते हैं। वैर वैमनस्य को मिटाकर प्रेम के, दया के, करुणा व सहानुभूति के सुमन विकसित कर सकते हैं। अहिसा के एक तरफ अनेकान्तवाद और दूसरी तरफ स्याद्वाद स्थित है— यं लोका असकृतमन्ति ददते यस्मं विनम्रांजलि, मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिंसाभिः । नित्यं चामरधारणमिव बुधाः यस्यैकपार्श्वे महान, स्याद्वादः परतो बभूवतु स्थानकान्तकल्पद्र ुमः ॥ जैनदर्शन के अनुसार समाज में समतावादी भावना के लिए पार्थिक विषमता को, परिग्रहवाद को समाप्त करना धावश्यक है जमाखोरी, रिश्वत, मिलावट, तस्करी, चोरीडकैती सब परिग्रहवादी भावना के अलग-अलग मुखौटे हैं और यह मुखौटे हमें सर्वत्र नजर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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