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वीतराग-योग/ ४५
हो सकते हैं। उन्हें एक ओर रखते हुए साधक को केवल वीतरागता का समर्थन करने वाले सूत्रों को ही अंगीकार करना चाहिये । इसी में कल्याण है, निर्वाण है, विमुक्ति है।
भविष्य में वैज्ञानिक विकास के साथ भोगों की विपुल सामग्री उपलब्ध होने वाली है, जो भोगेच्छा को बढ़ाने वाली होगी। भोगेच्छा की वृद्धि के साथ लाभ, लोभ, संग्रह, मान, मद, स्वार्थपरता, संकीर्णता, हृदयहीनता, कठोरता, अकर्मण्यता, अकर्तव्य प्रादि दोषों के भयंकर रूप में वृद्धि होने वाली है। जिसके परिणामस्वरूप अभाव, तनाव, दबाव, द्वन्द्व दीनभाव, होनभाव, नीरसता, निर्बलता, असमर्थता, प्राणशक्ति का ह्रास, संघर्ष, शारीरिक और मानसिक रोग आदि दुःखों की भयावह अभिवद्धि होने वाली है, जिससे मानव का जीना दूभर हो जायेगा। साथ ही मानवजाति के अस्तित्व को खतरा भी हो सकता है। इन दोषों से, दुःख से, नर्क, स्वर्ग, परलोक प्रादि से निरपेक्ष धर्म ही बचा सकता है । अत: मानवजाति को बचाने के लिए ऐसे मार्ग की आवश्यकता है जो निज अनुभव व ज्ञान पर तथा निसर्ग व कारण-कार्य के नियमों पर आधारित हो, ऐसा मार्ग 'वीतराग-मार्ग' ही हो सकता है । अत: वीतराग-मार्ग के अनुयायियों का कर्तव्य है कि वे अपने मतभेद भुलाकर वीतराग-मार्ग को जन-जन तक पहुँचाकर उन्हें दुःख से मुक्त करने में पहल करें।
-अधिष्ठाता, श्री जैन सिद्धांत-शिक्षण संस्थान साधना भवन, ए-९, महावीर उद्यानपथ बजाज नगर, जयपुर (राज.) ३०२०१७
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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