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________________ जैन साधना-पद्धति में ध्यान [ कन्हैयालाल गौड़, एम. ए., साहित्यरत्न अनादिकाल से आज तक विश्व में जितनी भी वन्दनीय एवं पूजनीय महान मात्माएं हुई हैं, उन सभी ने अपनी दृढ़ साधना के बल पर ही उच्चता प्राप्त कर अपनी प्रात्मा का विकास किया है और आज भी साधक अपनी दृढ़ साधना के द्वारा आत्मा का विकास कर रहे हैं। जब साधक के जीवन का प्राध्यात्मिक विकास हो जाता है तो उसके जीवन की साधना तेजस्वी होती है, उसके जान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, दया, क्षमादि धर्म आदि सब पात्मिक गुणों में आत्मिक विवेक सहज, अकृत्रिम, तेजस्वी, सुदृढ़ एवं अविचल हो जाता है। साधना-पथ पर पैर रखने पर कदम-कदम पर कष्टों और संकटों का सामना करना पड़ता है। साधक की तप-साधना कर्मक्षय के लिये होती है। साधना की तीन श्रेणियाँ हैं(१) ज्ञान (२) तप और (३) चारित्र । ज्ञान मनुष्य में मोक्ष और संसार संबंधी विवेक को जागृत कर देता है, प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ भान करा देता है, जिससे मनुष्य विवेक से हेय मार्ग को त्याग कर उपादेय मार्ग को अपना सकता है। इसीलिये भगवान् महावीर का कथन है-"ज्ञान समस्त वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए है, अज्ञान और मोह को मिटाने के लिये है।" जैनधर्म अन्तरंग की साधना पर विशेष बल देता है, बाह्य साधना पर नहीं। साधना किसी भी तप-जप की हो अथवा व्रत-नियम की हो, वह हृदय की पवित्रता से ही सिद्ध होती है । यदि साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधक का मन पवित्र नहीं है, कलुषित है, विकारों से अोतप्रोत है, तो वह क्षम्य नहीं। संयमव्रत ग्रहण करने से मन में पवित्रता आती है। यदि साधक संयमव्रत को ग्रहण कर साधना करे तो उस साधना में बल पा जाता है। साधक का मन भी पवित्र विचार और स्पष्ट चिन्तन देता रहता है। साधना में ध्यान का लक्षण साधना में ध्यान का विशेष महत्त्व है। यदि साधना में चित्त एकाग्र नहीं है तो वह साधना निष्फल जायगी। अतः साधक को साधना करते समय चित्त को एकाग्र रखना आवश्यक है। चित को एकाग्र रखना ही ध्यान है । अथवा अपने लक्ष्य या ध्येय की अोर मन को एकाग्र करने को ही ध्यान कहा है । अपने लक्ष्य में चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है। एक ही वस्तु में अंतर्मुहूर्तमात्र जो चित का अवस्थान-एकाग्रता है, वह छानस्थिक का ध्यान और योग का निरोध जिनेश्वरों का ध्यान है। महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित योगशास्त्र में ध्यान के लक्षण को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि धारणा में जहाँ चित्त को धारण किया गया है वहीं पर जो प्रत्यय की एकाग्रता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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