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________________ चतुर्थ खण्ड / ९२ आवज्जइ एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। अण्णे य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ॥ ३२/१०३ अर्थात कामभोगों में आसक्त (रागयुक्त) जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उसी प्रकार के अनेक भावों को एवं विविध रूपों को तथा इनसे उत्पन्न होने वाले अन्य अनेक विकार विशेषों को प्राप्त करता है । इस कारण से वह कायासक्त जीव करुणा-पात्र, लज्जित एवं द्वेष्य बन जाता है । राग का नाश होते ही इन सब विकारों का विनाश हो जाता है। भगवदगीता में भी स्थितप्रज्ञ को राग, भय एवं क्रोध से रहित बताया गया है-बीत रागभयक्रोधः स्थितधीमनिरुच्यते । ये तीन विकार (दोष) उपलक्षण से तत्सदृश अन्य विकारों का भी ग्रहण कर लेते हैं। स्थितप्रज्ञ में भी वीतराग की भाँति राग-द्वेषादि विकारों का समूल नाश हो जाता है। जैसा कि कहा है-----रागद्वेषवियूक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन'१५ इत्यादि । ३. विषयों से विमुखता बीतराग पुरुष की पांचों इन्द्रियाँ (कान, आँखें, नाक, जीभ एवं स्पर्शन) एवं मन विषयभोगों की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं। वह विषय-भोगों से विमुख हो जाता है । स्थितप्रज्ञ भी इन्द्रिय-विषयों से अपने आपको समेट लेता है। श्रीकृष्ण अर्जन से कहते हैं-हे अर्जन ! जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों से पूर्णत: निगहीत हैं उसकी प्रज्ञा स्थित होती है। ४. दुःख-नाश वीतरागता की प्राप्ति के साथ ही दुःखों का विनाश हो जाता है। वीतराग के पास किसी भी प्रकार का दु:ख नहीं फटकता । वह सर्वविध दुःखों का अंत कर देता है--जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।'७ अर्थात जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, वीतराग उन सबका अंत कर देता है। अन्यत्र उत्तराध्ययन में हीते चेव थोवं वि कयाइ दुक्खं, ण वीयरागस्स करेंति किंचि१८ कहकर वीतराग से दुःखों को दूर रख दिया है। स्थितप्रज्ञ' भी जब इन्द्रियनियंत्रण कर एवं प्रात्मवश्य होकर प्राचरण करता है तो वह प्रसाद (प्रसन्नता) प्राप्त करता है तथा प्रसाद प्राप्त करने पर सब दुःखों का विनाश हो जाता है, यथा आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति । गीता २/६४ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ॥ गीता २/६५ वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ में कुछ अन्तर भी प्रतीत होता है । यह अन्तर निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है १. कर्म-क्षय उत्तराध्ययन सूत्र में जहाँ वीतराग को मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का क्षय करने वाला कह कर उसे कर्मक्षय की कसौटी पर परखा गया है वहाँ स्थितप्रज्ञ के साथ कर्मक्षय का कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया गया। जैनदर्शन के अनुसार आठ कर्मों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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