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________________ वीतराग-योग/ ३९ की अनुभूति होने लगती है। जिससे अपने भीतर पड़े हए चेतन-अर्द्धचेतन-प्रवचेतन के स्तर पर पर्वसंचित कर्म-संस्कार प्रकट होकर सामने आने लगते हैं। संस्कार संवेदनामों के रूप में उदय, क्षीण व नष्ट, निर्जरित होने लगते हैं। समताभाव से तटस्थभाव से राग-द्वेष रूप प्रतिक्रिया रहित देखने से नवीन संस्कारों (कर्मों) का निर्माण तो प्रायः रुक ही जाता है । साथ ही पुराने संस्कार निर्जरित होने लगते हैं, टूटने लगते हैं। इससे अपने भुक्त-भोगों के प्रति राग-द्वेष या ममता करके तथा नवीन कामनाएं पैदा करके जिन संस्कारों का, कर्मों का, मानसिक ग्रन्थियों का सर्जन किया था, उनका विसर्जन होने लगता है। अपने बारे में जो धारणाएँ, प्रतिमाएँ (images) थीं, वे टूटने लगती हैं, अहंकार विगलित होने लगता है। इस अहंकार का टना, गलना ही जैनधर्म में विनय तप कहा है और भीतर स्थित स्थल संवेदना पर समतायुक्त तीक्ष्ण चित्त को एकाग्र करने से उन संवेदनामों का बेधन होने लगता है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में प्राकाश में बादल बिखर कर गलते हैं, वैसे ही संवेदनाएँ, व साथ ही उनके संस्कार बिखर कर विगलित होने लगते हैं। संवेदनाओं को व संस्कारों (कर्मों) को धुनने की इस प्रक्रिया व प्रयास को जैनधर्म में वैयावत तप व बौद्धधर्म में सम्यक् व्यायाम कहा गया है। इसके आगे ध्यान की क्रिया में जब सब स्थल संवेदनाएँ और सूक्ष्म हो जाती हैं और सूक्ष्म संवेदनाएँ गलकर विजित हो जाती हैं तो स्वानुभूति होती है, निजस्वरूप का बोध होता है, वह स्वाध्याय है । इस प्रकार ध्यान की पूर्वावस्था में प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय रूप प्राभ्यान्तर तप से स्थूल व सूक्ष्म शरीर की समस्त संवेदनाएँ तरंगवत् हो जाती हैं । फिर तरंगें भी विसजित हो जाती हैं तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर का या काया का अस्तित्व ही अनुभव नहीं होता है, चेतना प्राकाशवत् शून्य रूप निर्मल हो जाती है। ऐसी कायातीत, देहातीत अवस्था को जैनदर्शन में कायोत्सर्ग कहा जाता है। योगदर्शन में इसे समाधि कहा जाता है, यथा-तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः। -योग. ३-३ । अर्थात् वही ध्यान जब अर्थ (वस्तु) मात्र के भास से रहित हो स्वरूप से शून्य (आकाश) वत् हो जाता है, इसे ही समाधि कहा जाता है । बौद्धदर्शन में इसे स्रोतापन्न या सकदागामी कहा जा सकता है। विपश्यना : धर्मध्यान जैनदर्शन में धर्मध्यान चार प्रकार का है-(१) प्राज्ञाविचय (२) अपायविचय(३) विपाकविचय (४) संस्थानविचय । ध्यान-साधना में अंतर्यात्रा करते हुए शान्त चित्त से अंतर्जगत की यथार्थता को देखकर सत्य का दर्शन करना प्राज्ञाविचय है, अपने अंतस् में उठने वाले राग, द्वेष आदि विकारों दोषों, अपायों को देखना अपायविचय है। इन विकारों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली चित्त की स्थितियों व संवेदनाओं को देखना विपाकविचय है। विपश्यना ध्यानपद्धति में प्राज्ञाविचय को सम्यग्दर्शन, अपायविचय को कायानुपश्यना, विपाकविचय को वेदनानुपश्यना तथा चित्तानुपश्यना कहा जा सकता है। जैसे बीज से फल और फल से बीज की उत्पत्ति का क्रम या चक्र चलता ही रहता है, इसी प्रकार राग-द्वेष प्रादि विकारों (अपायों) के संस्कार रूप बीज से वेदना (संवेदना) रूप परिणाम, फल (विपाक) उत्पन्न होता है । उस विपाक में अनुकूल वेदना, संवेदना के प्रति राग, प्रतिकूल वेदना, संवेदना के प्रति द्वेष करने से पुन: संस्कारों (कर्मों) का बीज वपन होता है, वे कर्म संवेदनाओं के रूप में उदय पाकर फल देते हैं । इस प्रकार विकार-उत्पत्ति और आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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