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________________ धर्म की दिशा | ३२३ शांति के समय वह धर्म और दर्शन का चिन्तन परिणाम प्रस्तुत करे, सदाचार का पथ प्रशस्त करे । अशांति के समय भी वह सदाचार के आयामों का प्रचार-प्रसार करे । पर न केवल यही बल्कि उन प्रशांत क्षेत्रों में पहुँचकर अपनी बात मजबूती के साथ कहे । यह साहस का काम है पर वही साहस उपयोगी है। सुदृढ़ साहस से अहिंसा का मार्गदर्शन करने वाला साहस प्रशंसनीय है। उसके लिए स्वयं को होम देना पड़ता है पर उस पाहुति में भी उदात्तता रहती है, उत्सर्ग रहता है, जो सर्वश्लाध्य होता है। उस उत्सर्ग की सभी श्लाधा करते हैं । मित्र भी, शत्रु भी। स्वधर्मी भी, विधर्मी भी। जो श्लाधा सर्वव्यापी हो, वही सच्ची श्लाघा है। जिसकी प्रशंसा शत्र भी करे, वहो प्रशंसा है। गांधीजी की प्रशंसा इसीलिए सार्थक है। अहिंसा पूजा की वस्तु नहीं है । पूजा से वह कुंठित होती है । वह है साधना का मार्ग । इसे साधकर गांधी गांधी बन गये । कर्मक्षेत्र में उसे साधने की आज फिर आवश्यकता है। आवश्यकता के समय उसका कार्यान्वयन हो जाने पर ही उसकी सार्थकता है। आज भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सत्य किसी अनजान गुहा में जाकर छिपा बैठा है । हिरण्य ने सत्य के पात्र का मुख ढक दिया है। यह तो लोकयात्रा है। उस हिरण्यपात्र को हटाने का प्रयास ही सच्ची साधुता है। साथ के लोभ में सभी व्यापारी परिग्रही बन जाते हैं । एक साथ पर असंख्यों की दुर्गति । उस मार्ग पर भी विचार होना ही चाहिए । अस्तेय के उपदेश से काम नहीं चलेगा। चोरी की दिशाएँ खोजकर उन पर आघात करना होगा। दहेज प्रथा, बलात्कार जैसे घृणित मार्गों से लोगों का मन हटा पाये तो धर्म सार्थक है, तो वे उपदेश सार्थक हैं, तो वे व्याख्यान सार्थक हैं, तो वे धर्मग्रन्थ सार्थक हैं। अन्यथा किस काम के वे सब? समाज में अनाचार बढ़ते रहें, धर्माधिकारी चुपचाप उन्हें देखते सहते रहें। यह तो अनाचार को उनकी मौन स्वीकृति है। समाज उनसे मार्गदर्शन चाहता है। सच्चे मार्गदर्शन को पूरा समाज स्वीकृत करता है। उस स्वीकृति के लिए मार्गदर्शक को आगे आना होगा । प्रागे वही पा सकेगा जिसके पास हल है। हल उसके पास ही होता है जिसके पास बुद्धि और उत्सर्ग की भावना और दढ़ प्रात्मशक्ति है। धर्म जनता से अपेक्षा करता है पर जनता की भी धर्म से अपेक्षा है। धर्म लोकोपकार के लिए सही अर्थों में उन्मुख हो तो ही उसकी सार्थकता है। धर्म की वह मानवता की बड़ी सेवा होगी। वही सेवा सार्थक होगी। वही धर्म सत्य है, वही शिव है, वही सून्दर है। क्योंकि धर्म धर्म के लिए नहीं होता उसका लक्ष्य मानव का अभ्युदय है। -१२, वीर दुर्गादास मार्ग, उज्जैन (म०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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