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साधना की सप्रमाणता : कायोत्सर्ग / २८९
परित्याग करता हूँ, अर्थात् दैहिक ममता का विसर्जन करता हूँ।" यह वाचिक कायोत्सर्गं कहा जायेगा । और मन से शरीर से " ममेदं" बुद्धि की निवृत्ति कर लेना " मानसिक कायोत्सर्ग" होगा |
शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा की अपेक्षा से कायोत्सर्ग के नौ प्रकार भी हैं। ४०
शारीरिक स्थिति
१. उत्सृत- उत्सृत २. उत्सृत
३. उत्सृत निषण्ण
४. निषण्ण उत्सृत ५. निषण्ण
६. निषण्ण-निषण्ण
७. निषण्ण उत्सृत ८. निषण्ण
खड़ा
खड़ा
खड़ा
बैठा
बैठा
बैठा
लेटकर
लेटकर
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मानसिक चिन्तनधारा
धर्मशुक्ल ध्यान
न धर्मशुक्ल न पातं रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा
श्रतं रौद्रध्यान
धर्म शुक्लध्यान
न धर्मशुक्ल ध्यान न प्रातं रौद्र किन्तु
चिन्तनशुन्य दशा
श्रार्त रौद्रध्यान ।
धर्म क्यान
न धर्मशुक्ल, न भ्रातरौद्र किन्तु
चिन्तनशुन्य दशा प्रातं रौद्र ध्यान
९. निषण्ण- निषण्ण
लेटकर
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कायोत्सर्ग खड़े होकर बैठकर, लेटकर इन तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है बड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग साधना करने की रीति इस प्रकार है— दोनों हाथों को घुटनों की ओर लटका दे । पैरों को समरेखा में रखे । दोनों पंजों में चार अंगुल का अंतर रखे। बैठी मुद्रा में कायोत्सर्ग - साधना करने वाला पद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाये। हाथों को या तो घुटनों पर रखे, बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर अंक में रखे तथा लेटी हुई मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला साधक सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को सबसे पहले ताने, फिर उन्हें शिथिल कर दे हाथ और पैर को सटाये हुए न रखे इन सभी में अंगों का सुस्थिर और शिथिल होना प्रति प्रावश्यक है। ४१
इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग करने वाला साधक शरीर से निष्क्रिय होकर खम्भे की तरह खड़ा हो जाय। दोनों बाहुत्रों को घुटनों की ओर फैला दे । प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाय। शरीर को एकदम पकड़ कर न खड़ा रखे प्रौरन एकदम झुका करके ही वह सम मुद्रा में बड़ा रहे कायोत्सर्ग में उपसर्ग और परिषह को सहन करना चाहिए। इतना अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि कायोत्सर्ग जिस
समभाव से स्थान पर
४०. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा - १४५६-१४६०। प्राचार्य भद्रबाहु ४१. योगशास्त्र ३ पत्र, २५०
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