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________________ पंचम खण्ड | ४२ अर्चनार्चन चाहे संपत्ति का हो, प्रतिष्ठा का हो, पद का हो, भौतिक हो, प्राधिदैविक हो, प्राभ्यंतरिक हो, अतीन्द्रिय विभूतियों का हो, परिग्रह तो परिग्रह ही है, त्याज्य ही है। अतीन्द्रिय विभूतियों का परिग्रह कोई पवित्र नहीं हो जाता । प्राशय यह है कि विभूतियाँ, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ साधक को अटका व भटका सकती हैं। अतः साधक को इनसे सावधान रहना चाहिये । यदि साधक . इनमें अटके-भटके नहीं तो इनका दिखना पीछे रहे जाता है और वह आगे बढ़ जाता है। मुक्ति-अमरत्व-निर्वाण पहले कह पाए हैं कि साधना का लक्ष्य या फल मुक्ति, अमरत्व व निर्वाण रूप साध्य को प्राप्त करना है, जिसका उपाय है वीतरागता अर्थात् राग का त्याग । विनाशी के राग के त्याग से अमरत्व, पर के राग के त्याग से मुक्ति, संस्कार (कर्म) के राग के त्याग से निर्वाण की अनुभूति या उपलब्धि होती है। जैसा कि मुक्त (सिद्ध) जीवों का वर्णन करते हुए जैनदर्शन में कहा है जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तण भोयणं कोई। तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो। इय सम्वकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ।। सिद्ध ति य बुद्ध त्ति य, पारगय त्ति य परंपरगय त्ति । उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य॥ णिच्छिणसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंती सासयं सिद्धा॥ (औपपातिकसूत्र-गाथा सं.१८, १९, २०, २१) अर्थात् जिस प्रकार सर्व प्रकार से अभी सिप्त गुण वाले भोजन को करके मनुष्य भूख एवं प्यास से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार (सिद्ध) अमृत से तृप्त होकर विराजते हैं। वे अतुल निर्वाण को प्राप्त कर सब कालों में तृप्त रखते हैं तथा शाश्वत एवं अव्याबाध सुख को प्रा कर सुखी रहते हैं । वे सिद्ध, बुद्ध, पारंगत और परम्परागत (परम्परा से पार गये हुए) कहलाते हैं । कर्मदल से उन्मुक्त होकर वे अजर, अमर एवं प्रसंग हो जाते हैं, सब दु:खों से रहित होकर वे जन्म, जरा, मरण एवं बंधन से मुक्त हो जाते हैं तथा वे सिद्ध अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं । इसी का समर्थन बौद्धदर्शन में भी किया है। इदमजरं इदममरमिदमजरामणपदमसोकं । असपत्त असम्बाधमक्खलितमभयं निरपतापं ॥ अधिगतमिदं बहहि अमृतं अज्ञापि च लभनीयमिदं। -थेरीगाथाएं ५११-५१३ अर्थात् यह अजर है, यह अमर है, जरा और मरण से विमुक्त पद है। यह शोक रहित है। यहाँ कोई प्रभाव नहीं, बाधा नहीं, स्खलन नहीं, भय नहीं, ताप नहीं । बहुतों ने इस अमृत को प्राप्त किया है और आज भी यह प्राप्त किया जा सकता है। संयुक्त-निकाय में कहा है असंखतं वो भिक्खवे देसिस्सामि सच्चञ्च....पारञ्च....अजरञ्च....धुवञ्च.... निप्पपञ्चञ्च....अमतञ्च....सिवञ्च....खेमञ्च....अब्भुतञ्च....विसुद्धिञ्च........दीपञ्च........ ताणञ्च वो भिक्खवे देसिस्सामीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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