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________________ वीतराग-योग / ४३ अर्थात् भगवान बुद्ध ने एक बार अपने भिक्ष-शिष्यों को संबोधित करके कहाभिक्षप्रो! अब मैं तुम्हें प्रसंस्कृत (कर्मरहित अवस्था) के विषय में देशना दंगा। सत्य का.... पार का....अमर का... ध्रव का....निष्प्रपंच का....अमृत का ...शिव का....क्षेम का... अद्भत का....विशुद्धि का....द्वीप का....त्राण का उपदेश दूंगा । इस प्रकार बौद्ध दर्शन में अमृत (अमरत्व), ध्रव, मुक्ति, निर्वाण प्राप्ति का संयुक्तनिकाय, सुत्तनिपात, महामालुक्यसुत्तन्त आदि ग्रन्थों में सैकड़ों स्थलों पर उल्लेख है। इसे ही योगदर्शन में कैवल्य प्राप्ति व समाधि के रूप में प्रस्तुत किया है। यथापुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।-कैवल्यपाद ३३॥ अर्थात् पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों का अपने कारण में लीन होना कैवल्य है अथवा चिति शक्ति का अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाना कैवल्य है । और भी कहा है तस्यापि निरोधे सर्व निरोधरानिर्बीजः समाधिः ॥ समाधिपाद-५१ । अर्थात् पर-वैराग्य द्वारा उस ऋतम्भरा प्रज्ञाजन्य संस्कार के भी निरोध हो जाने पर पुरातन सब संस्कारों के निरोध हो जाने से निर्बीज समाधि होती है। इसी को निरालम्ब्य तथा असम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं। उपर्युक्त तीनों साधनाओं का आधार है पर से स्व की अोर पाना अर्थात् बहिर्मखी से अंतर्मुखी होकर स्व में स्थित होना । अथवा स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढते हुए सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्तर तक पहुंच कर परम शुद्ध कैवल्य ( शुद्धतम) अवस्था को प्राप्त हो जाना। बाहर से अंदर की अोर पाने का क्रम है संसार, विषय वस्तुएँ, स्थल (औदारिक) शरीर, सूक्ष्म शरीर (चित्त व तेजस) एवं कारण (कार्मण) शरीर तक पहुंचना, फिर इन शरीरों के परे की अवस्था का अनुभव करना । यह नियम है कि जो ठहरता नहीं है, रुकता नहीं है वह ही आगे बढ़ता है । ठहरना व रुकना वहीं होता है जहाँ पर रस लेना, रमण करना, संग करना होता है अर्थात् संबंध जोड़ना होता है । अतः रस न लेने, रमण न करने, प्रसंग होने, संबंध विच्छेद करने से ही आगे बढ़ना होता है। आगे बढ़ना ही प्रगति करना है। अतः साधना में प्रगति करने का सूत्र है साधनामार्ग में आने वाले रमणीय स्थलों, अवस्थाओं में रस न ले, इनसे संबंध न जोड़े तथा जिनसे संबंध जोड़ रखा है, उनसे संबंध-विच्छेद कर दे और क्रमश: आगे बढ़ता जाय, यही साधना की प्रक्रिया है, कुंजी है। साधक को सर्वप्रथम संसार से संबंध-विच्छेद करने के लिए (१) संयम, (२) यम (महाव्रत), (३) पंचशील स्वीकार करना चाहिये।' फिर विषयों के. भोग व भोग्य वस्तुओं से संबंध-विच्छेद करने के लिए (१) शिक्षाव्रत व संवर, (२) नियम, (३) शिक्षाव्रत या दश शील ग्रहण करना चाहिये । तदनंतर स्थूल (औदारिक) शरीर से संबंध-विच्छेद करने, हलचल रोकने के लिए (१) ध्यानमुद्रा, (२) प्रासन, (३) ध्यानावस्था में बैठना चाहिये। सूक्ष्मशरीर अर्थात् चित्त की बहिर्मुखी वृत्ति रोकने के लिए (१) प्रारंभत्याग, (२) प्राणायाम, (३) पानापान१. उपर्युक्त विवेचन में (१) में जैनदर्शन की साधना को, नंबर (२) में योगदर्शन की साधना को और नंबर (३) में बौद्ध दर्शन की साधना को प्रस्तुत किया गया है । आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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