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पंचम खण्ड / २२
अर्चनार्चन
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है-"वचनोच्चारण की क्रिया का त्याग कर वीतराग भाव से प्रात्मा का ध्यान करना समाधि है। दूसरे शब्दों में संयम, नियम, तप और धर्मध्यान-शुक्लध्यान से प्रात्मा का ध्यान करना समाधि है।' योगदर्शन में समाधि के दो भेद बतलाये गये हैं-(१) सम्प्रज्ञातसमाधि एवं (२) असम्प्रज्ञातसमाधि । सम्प्रज्ञातसमाधि को सबीजसमाधि भी कहा गया है। इस समाधि में मन एक वस्तु पर केन्द्रित रहता है। दूसरे. शब्दों में इस अवस्था में मन का व्यापार चलता है। इसकी तुलना चौथे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती योगी की योग अवस्था से की जा सकती है। हरिभद्र ने योगबिन्दु में अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय, इन पाँच को अध्यात्म विकास की भूमिकाओं में विभाजित किया है। इनमें से प्रादि की चार भूमिकानों की तुलना सम्प्रज्ञातसमाधि से की जा सकती है। असम्प्रज्ञातसमाधि में किसी विषय का चिन्तन नहीं किया जा सकता है। इसे निर्बीज-समाधि भी कहा गया है । इसकी तुलना जैनदर्शन में मान्य प्रयोगकेवली से की जा सकती है । हरिभद्र ने इस असम्प्रज्ञातसमाधि को वृत्तिसंक्षय कहा है ।
हरिभद्रीय योगांगों के साथ पातंजल-योगाष्टांग की तुलना-हरिभद्र ने 'योगदृष्टि-समुच्चय' में योग के मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा ये पाठ अंग बतलाये हैं। तथा उनका विस्तृत स्वरूप-विवेचन भी किया है। हरिभद्र ने मित्रा की यम, तारा की नियम, बला की प्रासन, दीप्रा की प्राणायाम, स्थिरा की प्रत्याहार, कान्ता की धारणा, प्रभा को ध्यान और परा की समाधि से तुलना की है।
मा. रामसेनीय योगाष्टांग की पातंजल-योगाष्टांग से तुलना-प्राचार्य रामसेन ने 'तत्त्वानुशासन' (ध्यान-शास्त्र) में योग-साधन के पाठ अंग इस प्रकार बतलाये हैं-ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल, ध्येय, ध्यानस्वामी, ध्यानक्षेत्र, ध्यानकाल और ध्यानावस्था।' इन पाठ अंगों का सूक्ष्म विवेचन उक्त ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। युगवीर जुगलकिशोर मुख्तार ने प्राचार्य रामसेन के उक्त योग के आठ अंगों की तुलना पातंजल के पाठ योगांगों से मुख्य-गौण दृष्टि एवं स्वरूप आदि की दृष्टि से की है। उदाहरणार्थ यम और नियम का अन्तर्भाव धर्मध्यान और संवर में, ध्यान और समाधि का ध्यान में तथा प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा का ध्यान की अवस्था एवं प्रक्रिया में अन्तर्भाव होता है।
१. नियमसार, गा. १२२-१२३ २. हरिभद्र, योगबिन्दु, कारिका ३१ ३. (क) वही, कारिका, ४२८, ३१, ४२० (ख) दृष्टव्य-पं० सुखलाल संघवी, समदर्शी अ० हरिभद्र, पृष्ठ १०१;
दर्शन और चिन्तन, पृष्ठ २६५ ४. मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कांता प्रभा परा।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत। -योगदष्टिसमुच्चय, श्लोक १३ ५. दृष्टव्य वही, श्लोक २१-१८६ ६. यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारत :।।
अद्वेषादिगुणस्थानं क्रमेणषा सतां मता ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक १६ ७. प्रा. रामसेन, तत्त्वानुशासन, श्लोक ३७-४०
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