SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड | ११८ न यह कोई अतिशयोक्ति है तथा न अनपेक्षित स्तुति ही, महासती श्री उमराव- कुंवरजी म. "अर्चना" भारत के अध्यात्म-जगत् की उन परम गौरवास्पद, सम्मानास्पद साधिकाओं में से हैं, जिन्होंने अध्यात्म की गरिमा को अपने साधनानिष्णात जीवन द्वारा समुन्नत किया । मुझे प्रत्यक्षतः उनके साधनामय जीवन के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है । मैंने स्वयं यह अनुभव किया है कि उनका जीवन बाह्य प्रपंचों से सर्वथा विमुक्त है, अात्मचिन्तन में तथा ध्यान-योग में सतत संलग्न है । जैसी कि योग के महान् साधकों एवं साधिकानों के जीवन से अध्यात्म की एक दिव्य आभा प्रस्फुटित होती है, महासतीजी म० के जीवन में भी इस प्रकार की यौगिक दिव्यता की साक्षात् अनुभूति होती है । साधना के मुख्य रूप में दो अंग हैं-ज्ञान तथा चर्या । महासतीजी इन दोनों ही अपेक्षाओं से अपनी अनुपम विशेषता लिए हए हैं। धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्मयोग उनके जीवन के मुख्य विषय हैं, जिनका उन्होंने गहन अध्ययन किया है और अपने दैनन्दिन जीवन में उन्हें क्रियान्वित किया है । योग महासतीजी के जीवन का प्रिय विषय है। योग वाङमय में उन्हें सहज अभिरुचि है। तत्संबंधी साहित्य का अधिकाधिक प्रसार हो, उनकी यह हार्दिक कामना है, जो उनको प्रेरणा तथा मार्गदर्शन में देश के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० श्री छगनलालजी शास्त्री एम० ए० "त्रय", पी-एच० डी० द्वारा संपादित एवं अनूदित जैन-योगग्रन्थ-चतुष्टय नामक ग्रन्थ के अवलोकन से प्रतीत हुआ। इसके अन्तर्गत स्वनामधन्य, प्रातः स्मरणीय महामहिम आचार्य श्री हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित योगदृष्टिसमुच्चय योगबिन्दु, योगशतक तथा योगविशिका नामक चार कृतियाँ हैं। प्राचार्य हरिभद्र जैसे महान् मनीषी, महान् सन्त के ये चारों ग्रन्थ अब तक हिन्दी-जगत् को उपलब्ध नहीं थे। महासतीजी म० की प्रेरणा से पहली बार इनका हिन्दी अनुवाद से साथ प्रकाशन हुआ। उनके मन में यह भावना है, जैन प्राचार्यों द्वारा योग पर रचित अन्यान्य ग्रन्थ भी, जो अब तक हिन्दी-जगत् को प्राप्त नहीं हो सके हैं, प्राप्त हों। शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ महासतीजी म. ने अपनी दीर्घकालीन योग-साधना द्वारा, आत्मानुभूति द्वारा, ध्यान, आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि के सन्दर्भ में जो उपलब्धियां की हैं, वे अपने आप में निराली हैं। अपनी सन्निधि में आने वाले साधकों और साधिकाओं को वे उनका अभ्यास कराती हैं, जिससे साधकसाधिकाओं को अब तक बहत लाभ हुआ है तथा हो रहा है । मालव संभाग का यह सौभाग्य रहा है कि पिछले दो-तीन वर्षों से मालव-भूमि महासतीजी म० के चरणस्पर्श से पवित्र हो रही है। अपने मालव-प्रवास के मध्य महासतीजी म० ने जिज्ञासु और मुमुक्षु जनों को अपनी यौगिक उपलब्धियों से जो लाभान्वित किया है, वह उनका निश्चय ही मालववासियों पर बड़ा उपकार है । मुझे उनके मालवप्रवास में अनेक बार उनके सान्निध्य का लाभ लेने का सुअवसर प्राप्त होता रहा है । जब भी मैं उनके दर्शन करता हूँ, उनके साथ धर्म-चर्चा, ज्ञान-चर्चा करता हूँ, मुझे अनुपम शान्ति का अनुभव होता है। Jain Education Alternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy