________________
अभिनमन : अभिवंदन : अमिनन्दन / ११९
महासतीजी म० के जीवनवृत्त पर जब हम चिन्तन करते हैं तो बड़े प्रेरक तथ्य हमें अधिगत होते हैं । शैशवावस्था में मातृ-वियोग तथा विवाह के केवल दो वर्ष बाद पति-वियोग-ये दो ऐसी घटनाएँ उनके जीवन में घटीं, जिनका धैर्य के साथ सामना करना बहुत कठिन कार्य था । ऐसी घटनाएँ व्यक्ति को तोड़ डालती हैं, किन्तु इन गरिमामयी सन्नारी ने इन भीषण आघातों को उन्नतिमय सोपानों के रूप में बदल डाला । भौतिक सुखों के विरह एवं प्रभाव की इस अंधकारमयी निशा को उन्होंने आत्मोत्कर्ष की ज्योतिर्मयी उषा के रूप में परिणत कर डाला। अत्यधिक धैर्य तथा साहस के धनी अपने श्रद्धय पिताश्री मांगीलालजी के साथ उन्होंने जैन भागवती दीक्षा स्वीकार की। अपने युग के महान् मनीषी, जैन-शासन के परम उन्नायक मुनिश्री हजारीमलजी म० की छत्रछाया तथा उद्बुद्ध अध्यात्म-साधिका महासतीजी सरदारकुंवरजी म० के अन्तेवासीत्व में यह महान् सन्नारी ज्ञान तथा चारित्र की आराधना में प्राणपण से जुट पड़ी। स्वाध्याय उनके जीवन का पाथेय बना, चारित्र्य की प्रकृष्ट साधना जीवन का ध्येय । जहाँ आत्मरस, लगन तथा कर्म का समवाय सध जाता है, वहाँ निश्चय ही परमोत्तम फल-निष्पत्ति होती है। ये उत्तरोत्तर प्रात्मोन्नति के प्रशस्त-पथ पर अग्रसर होती रहीं। प्रबुद्ध ज्ञानयोगी, बहश्रुत पण्डितरत्न युवाचार्य-प्रवर श्रीमधुकर मुनिजी म० का मार्गदर्शन इन्हें प्रारंभ से ही प्राप्त रहा, जो इनके विद्यामय, चारित्रमय, साधनामय, प्रभावनामय जीवन के सर्वतोमुखी विकास में अनन्य सहायक सिद्ध हुआ । इन महान् नारी की आध्यात्मिक-साधना की ५० बर्षों की संपूर्ति इनके अध्यात्मयोगनिष्ठ जीवन का वह साकार निदर्शन है, जिससे साधनारत भाई-बहिन अन्तःस्फूर्ति और प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। प्राज महामहिम मनिश्री हजारीमलजी म. सा.. प्रात:स्मरणीया मद्रा सतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा० एवं परम श्रद्धास्पद युवाचार्यप्रवर श्री मधुकर मुनिजी म. सा. हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उन तीनों की सद्गुण-संपत्ति को एक
आध्यात्मिक धरोहर के रूप में महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० अपने आप में संजोए हैं।
संत जीवन के दो लक्ष्य होते हैं सबसे पहले स्वयं अपने कल्याण में अभिरत रहना, उत्तरोत्तर गतिशील रहना तथा दूसरे लोककल्याण हेतु प्रयत्नशील होना । महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० ने आत्मकल्याण को तो अपना मुख्य ध्येय माना ही, उसमें उत्तरोत्तर विकास किया ही, साथ ही साथ अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों से जन-जन को लाभान्वित करने का भी उन्होंने सतत प्रयास किया। भारत के अनेक प्रदेशों में उन्होंने अपने साध्वी-समूदाय के साथ पद-यात्राएँ कीं। वे प्रथम
जैन साध्वी हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम काश्मीर की पर्वतीय भूमि की पद-यात्रा की । इन . पद-यात्रामों में उन्होंने जाति, वर्ग तथा वर्ण भेद के बिना जन-जन को सत्यमय,
सदाचारमय, नीतिमय जीवन को ओर प्रेरित किया, अग्रसर किया। लाखों व्यक्ति उनसे प्रेरित हुए, धर्मोन्मुख बने।
विद्या तथा साधना में अति उच्च स्थान प्राप्त करने पर भी उनके जीवन में एक शिशु की सी सरलता, सहजता एवं भद्रता है, जो वास्तव में मानव का एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org