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________________ • अर्थ ना च न . तृतीय खण्ड 55 टला बिना विचार के ही प्राचार को मानते हैं तो आपकी दृष्टि में क्या ये पशु, कीड़े-मकोड़े आदि सब त्यागी हैं ? इसलिए सिद्धान्त यह है कि जब तक विचारपूर्वक त्याग न हो, तब तक उसे आचार की संज्ञा नहीं दी जा सकती। विचारहीन त्याग, त्याग नहीं भगवान् महावीर से पूछा गया कि त्यागी कौन है, अत्यागी कौन है ? तब उन्होंने कहा वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुजंति न से चाइत्ति वच्चई ॥ जे य कंते पिए भोए लद्ध विपिट्टीकुव्वई । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥ वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, स्त्री, शय्या आदि का जो पराधीन होकर---विवशता के कारण उपभोग नहीं कर सकता, वह त्यागी नहीं कहलाता। त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त, प्रिय, मनोज्ञ भोगों को प्राप्त होने पर भी उनकी ओर पीठ कर लेता है, अपनी इच्छा से--स्वतन्त्रतापूर्वक छोड़ता है। जेलखाने में कैदी को जबरन कई चीजें छोड़नी पड़ती हैं, भोजन भी छोड़ना पड़ता है, किन्तु छुड़ाया जाता है, वह अपनी इच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक छोड़ता नहीं है, इसलिए उन वस्तुओं का त्यागी नहीं कहलाता; किन्तु निःस्पृह साधु-साध्वियों के सामने कई चीजें पड़ी रहती हैं, वह उन्हें आँख उठाकर देखते भी नहीं, मन से भी उन्हें प्राप्त करना नहीं चाहते, वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छा से उन मनोज्ञ वस्तुओं का त्याग करते हैं, इसलिए वह त्यागी कहलाते हैं। संसार में हजारों लोग ऐसे हैं, जिन्हें संसार के ऐश्वर्य भोगसाधन आदि प्राप्त नहीं होते तो क्या वे त्यागी कहे जाएँगे? कदापि नहीं। क्योंकि वे अपनी इच्छा से-संकल्पपूर्वक किसी चीज का त्याग नहीं करते। संकल्पपूर्वक ही दानादि होते हैं कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी चीज को छोड़ने का संकल्प ही पैदा नहीं होता और चीज अपने आप ही छूट जाती है। कभी किसी चीज को छोड़ने का संकल्प तो नहीं पाता है, किन्तु अंगविकलता या रुग्णता प्रादि परिस्थितिविशेष से उस चीज का उपभोग वह नहीं कर सकता, तो क्या इसे हम त्याग कहेंगे ? त्याग उसे कहेंगे, जिसमें पहले संकल्प हो । दान करने का विचार होता है, तो पहले दान का संकल्प किया जाता है, तब दान किया जाता है। जैनदर्शन की दृष्टि से भी देखा जाय तो सम्यग्दर्शन से युक्त चारित्र ही सम्यक् चारित्र कहलाता है। जो चारित्र (प्राचार) सम्यग्दर्शन से युक्त नहीं है, वह मिथ्याचारित्र या कुचारित्र कहलाता है। मुक्ति का द्वार खोलनेवाला सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व है। उसके बाद ही सम्यक् चारित्र कृतकार्य होता है। इसीलिए कहा गया है कि जो भी व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, धर्मक्रिया या धर्माचरण हों, वे सम्यग्दर्शन से युक्त होने चाहिए, तभी वे प्राचार सम्यक् कहलाएंगे, और मुक्ति के साधन कहलाएंगे। 104 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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