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________________ विचार एवं आचार कहा जाता है कि केवल विचारों से क्या होगा? प्राचार भी तो चाहिए । मैं इस बात से सहमत हूँ। परन्तु प्राचार तभी होगा, जब विचार होगा। बिना विचार के अच्छा या बुरा कोई प्राचरण हो नहीं सकता। किसी के मन में सेवा के विचार पाए, दीन-दु:खियों के प्रति करुणा के विचार आए। क्या आप उन सुविचारों का कुछ भी मूल्याङ्कन नहीं करेंगे ? माना कि प्राचार का बहुत बड़ा मूल्य है, किन्तु विचारों का मूल्य भी कम नहीं है। प्राचार की पवित्रता पर मुहर-छाप कौन लगाता है ? विचार ही तो आचार की पवित्रता को प्रमाणित करते हैं। जैसे विचार होंगे, वैसा ही प्राचार होगा । अनुभवसिद्ध बात यह है कि जब आप अपने जीवन में यह महसूस करते हैं कि यह मुझसे नहीं होगा तब वहाँ विचारों की शिथिलता ही प्राचार क्षेत्र में प्रतिबिम्बित हो जाती है। 'विचार तो पाते हैं बीड़ी-सिगरेट छोड़ दें, परन्तु छूटते नहीं।' ऐसा जो कहते हैं-उनके विचार में ही बल नहीं है। अगर प्रबल विचार आए तो तदनुसार आचार बन ही जाता है। अगर एक मनुष्य किसी परिस्थितिवश किसी चीज को छोड़ नहीं सकता तो कोई बात नहीं, अगर वह प्रतिदिन यह विचार ही करता है कि मुझे एक न एक दिन इस चीज को अवश्य ही छोड़ना है, तो यह भी ठीक है। पर मनुष्य विचार तो छोड़ने का करे नहीं, और बात चलने पर कहता रहे कि मैं विचार तो करता हूँ इस चीज को छोड़ने का, पर यह छुटती नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि वह विचार नहीं करता, विचारों का बहाना मात्र करता है। समाज, राष्ट्र या विश्व में जो भी गलत कार्य हैं-बुरी प्रथाएँ, कुरूढ़ियाँ या बुरे विचार हैं, वे चाहे सामाजिक क्षेत्र में हों, राष्ट्रीय क्षेत्र में हों या पारिवारिक क्षेत्र में, अथवा वे आध्यात्मिक क्षेत्र में हों, अगर आप उन्हें छोड़ना चाहते हैं, तहेदिल से उनका त्याग करना चाहते हैं, तो उन्हें छोड़ने का संकल्प करें, उनके त्याग का विचार करें और मन में श्रद्धा रखें, उनके छोड़ने का उपाय सोचें, तथा उनके त्याग का महत्त्व और स्वरूप जानें तो एक दिन वह विचार प्राचार में परिणत होकर ही रहेगा। भारत का दर्शन कहता है कि अगर आपने विचार भी कर लिया तो एक मोर्चा तो फतह हो ही गया। यानी किले का सिंहद्वार तो टूट चुका । उसके बाद छोटे-मोटे किवाड़ों के टूटने में देर नहीं लगेगी। अगर मनुष्य किसी चीज को छोड़ता है, और छोड़ता है बिना विचार किये । किन्तु क्या आपके दर्शनशास्त्र उसे वास्तव में छोड़ देना कहते हैं ? या उसे त्याग करना कह सकते हैं ? विचारहीन आचार व्यर्थ है पशु या कीट-पतंगे क्या सिनेमा देखते हैं, बीड़ी-सिगरेट पीते हैं ? वे कौन-सी चोरी करते हैं ? वे इन सब चीजों का सेवन नहीं करते तो क्या त्यागी कहे जायेंगे ? आप अगर . समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी है।" 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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