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________________ ध्याता, ध्यान और ध्येय / ५९ धारा को स्थापित करना ध्यान का लक्षण है। अर्थात् चित को अन्य विकल्पों से हटाकर एक ही अर्थ में लगाने को 'ध्यान' कहते हैं। प्राचार्यों ने ध्यान की संसिद्धि हेतु प्रारम्भिक साधक को मन एकाग्र करने का सुगम और सरल उपाय मन्त्र जप आदि बताया है। चल अध्यवसाय चित्त है तथा स्थिर अध्यवसाय ध्यान है। ध्यान का प्रथम रूप चित्त का निरोध करना है। द्वितीय रूप मन, वचन तथा काया का पूर्ण रूप से निरोध करना है । साधारणतया मन की विचारधारा प्रतिपल बदलती रहती है और अन्य-अन्य दिशाओं में प्रतिक्षण बहती हुई हवा में स्थित दीपशिखा की भांति अस्थिर होती है। ऐसी चिन्तनधारा को प्रयत्नपूर्वक अन्य विषयों से हटाकर एक ही विषय में रखना ध्यान है। तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता वाचक उमास्वाति ने लिखा है-"आ मुहूर्तात"१ अर्थात् ऐसा ध्यान अन्तर्महुर्तपर्यन्त रहता है। ध्यान का यह स्वरूप छमस्थ में ही संभव है, इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है। योगशास्त्र में कहा है मुहर्तात्परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । वह्वर्थसंक्रमे तु स्याहीर्धाऽपि ध्यान-संततिः ॥२ अर्थात् अन्तर्महर्त से आगे पालम्बन भेद से ध्यानान्तर हो सकता है, किन्तु एक विषयक ध्यान अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक नहीं हो सकता । अन्य वस्तु पर चिन्तनधारा का संक्रमण होने पर ध्यान की धारा अन्तर्महर्त से अधिक भी चल सकती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि एक दिवस या एक अहोरात्र तक अथवा अधिक काल तक ध्यान किया। अंतोमुहत्तमित्त चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं त॥ अर्थात् एक वस्तु में अन्तर्मुहुर्त प्रमाणकाल के लिए चित्त को एकाग्र करना छाद्मस्थिक ध्यान है और योगनिरोध अयोगी जिनों का ध्यान है। ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है। प्रस्तुत बिन्दु को सभी दर्शनों में स्वीकार किया है। इसके लिए सर्वप्रथम अहंकार एवं ममकार का विसर्जन आवश्यक होता है । इस स्थिति की प्राप्ति के लिए अनुप्रेक्षानों का निर्देश किया गया है। एकत्वभावना का अभ्यास करनेवाला अहं के पाश से मुक्त हो जाता है । अनित्यभावना का अभ्यास करनेवाला ममकार के पाश से मुक्त हो जाता है। जैन आगम साहित्य में ध्यान के चार प्रकार बताये हैं। ध्यान के वर्गीकरण में प्रथम दो ध्यान प्रार्त और रौद्र उपादेय नहीं हैं। धर्म एवं शुक्ल ये अंतिम दो ध्यान उपादेय हैं। प्रार्तध्यान में कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता रहती है। प्रार्तध्यान के चार प्रकार हैं (१) अमनोज्ञ वस्तु का संयोग होने पर उसे दूर करने का बार-बार चिन्तन करना । (२) मनोज्ञ (प्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा वार-वार चिन्तन करना। १. तत्त्वार्थसूत्र ९।२८ २. योगशास्त्र, प्रकाश ४, श्लोक ११६ ३. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा....। -स्थानांगसूत्र, स्थान ४/१, पृ. २२२ आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तव हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.janelbrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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