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पंचम खण्ड/६०
| अर्चनार्चन
(३) अातंक-घातक रोग होने पर उसके दर करने का वार-वार चिन्तन करना। (४) भविष्यत्काल में-पागामी जन्म में विषयभोगों या ऐश्वर्य आदि को प्राप्ति के
लिए एकाग्रतापूर्ण चिन्तन करना । प्रार्तध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं(१) प्राक्रन्दन करना अर्थात् उच्चस्वर से बोलते हए रोना। (२) शोक करना-दीनता प्रकट करते हुए शोक करना । (३) आँसू बहाना। (४) परिदेवनता-करुणाजनक विलाप करना ।' रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है(१) हिंसानुबंधी-निरन्तर जिसमें हिंसा का अनुबन्ध हो । (२) मृषानुबन्धी-असत्य भाषण सम्बन्धी एकाग्रता। (३) स्तेयानुबन्धी-निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी एकाग्रता । (४) संरक्षणानुबन्धी-परिग्रह, सन्तान प्रादि के संरक्षण हेतु दूसरे का उपधात करने की ___कषायमयी वृत्ति रखना अर्थात् जिसमें विषयभोग के साधनों का अनुबन्ध हो। रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। (१) उत्सन्नदोष-प्रायः हिंसा में प्रवृत्त रहना। (२) बहुदोष -हिंसादि को विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना । (३) अज्ञानदोष-प्रज्ञानवश हिंसादि में प्रवृत्त होना। (४) आमरणान्तदोष-मरणपर्यंत क्रूरकर्मों के लिये पश्चात्ताप न करना अर्थात्
हिंसादि में लगा रहना ।। प्रस्तुत लक्षण स्थानांग, भगवती एवं ध्यानशतक के अनुसार बताये हैं। रौद्रध्यान में क्रूरता की प्रधानता रहती है। रौद्रध्यानी दूसरों को दुःखी देखकर प्रसन्न होता है। ऐहिक एवं पारलौकिक भय से रहित होता है। पाप करके प्रसन्न होता है। जैनागमों में प्रार्तध्यान को तिर्यग्गति का कारण और रौद्रध्यान को नरकगति का कारण कहा गया है। ये दोनों अप्रशस्त एवं अशुभ ध्यान हैं। धर्मध्यान
धर्मध्यान, शुक्लध्यान की भूमिका तैयार करता है। शुक्लध्यान मुक्ति का साक्षात कारण है। सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान रहता है। पाठवें गुणस्थान से शुक्लध्यान का प्रारम्भ होता है।
धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार प्रकार हैं।
धर्मध्यान के चार ध्येय बतलाये गए हैं। ये अन्य ध्येयों के संग्राहक या सूचक हैं।
१. स्थानांग सूत्र, ४११ पृ० २२२ २. वही. पृ० २२३
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