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________________ ध्याता, ध्यान और ध्येय/६१ जितने द्रव्य और पर्याय होते हैं, उतने ही ध्येय होते हैं। यों ध्येय अनन्त हैं, उन अनन्त ध्येयों का उपर्यक्त चार प्रकारों से समासीकरण किया गया है। (१) आज्ञाविचय प्रथम ध्येय है। इसमें प्रत्यक्षज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सभी तत्त्व ध्याता के लिए ध्येय बन जाते हैं । ध्यान का अर्थ तत्त्व की विचारणा नहीं है । उसका अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार करना। धर्मध्यान करने वाला आगम में निरूपित तत्त्वों का आलम्बन लेकर उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है। इसमें वीतराग प्रभु की आज्ञा के प्रति बहुमान रखते हुए इस प्रकार चिन्तन किया जाता है कि यह वीतराग-वाणी परम सत्य है, तथ्य है, निश्शंक है। (२) अपायविचय द्वितीय ध्येय है। इसमें द्रव्यों के संयोग और उनसे उत्पन्न विकार या वैभाविक पर्याय ध्येय बनते हैं। अर्थात दोषों के दुष्परिणामों का चिन्तन करना और उनसे बचने की भावना रखना अपायविचय है। (३) विपाकविचय में द्रव्यों के काल, संयोग आदि सामग्रीजनित परिपाक, परिणाम या फल ध्येय बनते हैं। वैसे अनुभव में आने वाले कर्मफलों में से कौन-सा फल किस कर्म के कारण है, कौन-से कर्म का क्या फल है, इसके विचार में मन को एकाग्र करना विपाकविचय है। (४) संस्थानविचय चतुर्थ ध्येय है। यह प्राकृति विषयक पालम्बन है। इसमें परमाण से लेकर विश्व के अशेष द्रव्यों के संस्थान ध्येय बनते हैं। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य और उनकी पर्याय, जीव, अजीव के आकार, लोक, द्वीप, सागर, जीव-गति-प्रागति, लोकस्थिति, नरक, विमान, भवन प्रादि के आकार के चिन्तन में चित्त को एकाग्र करना संस्थानविचय है। धर्मध्यान करने वाला उक्त ध्येयों का पालम्बन लेकर परोक्ष को प्रत्यक्ष की भूमिका में अवतरित करने का अभ्यास करता है। धर्मध्यान के अधिकारी-अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, इन सबको धर्मध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है। धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। अथवा तत्त्वों और श्रुतचारित्ररूप धर्म के सम्बन्ध में सतत चिन्तन धर्मध्यान कहलाता है। तत्त्व सम्बन्धी विचारणा, हेयोपादेय सम्बन्धी विचारधारा तथा देव-गुरु-धर्म की स्तुति आदि धर्मध्यान के अंग हैं, शर्त यह है कि इसमें तल्लीनता हो। धर्मध्यान के चार लक्षण हैं-प्राज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढरुचि या उपदेशरुचि । तत्त्वार्थ का श्रद्धान धर्मध्यान का मुख्य लक्षण है। वीतराग देव एवं साधु मुनिराज के गुणों का कथन करना, भक्तिपूर्वक श्रुत, शील एवं संयम में अनुराग रखना-ये धर्मध्यान के चिह्न हैं । इनसे धर्मध्यान की पहचान होती है। धर्मध्यान के चार पालम्बन-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना एवं अनपेक्षा हैं। धर्मध्यान की चार अनुपेक्षाएँ कही गई हैं(१) एकत्वानुप्रेक्षा-अकेलेपन का चिन्तन करना । (२) अनित्यानुप्रेक्षा-पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना । आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jamelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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