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द्वितीय खण्ड | ६२
अग्निपथ पर चल पड़ों और तब से अब तक दीक्षा के पचास वसन्त आज चिरस्थायी कर चुकी हैं । इस संदर्भ में मुझे एक कविता की यह पंक्ति याद आती हैं--
यथा चतुभिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणच्छेदनतापताड़नैः, ? ? तथा चतुभिः पुरुषः परीक्ष्यते,
त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।। अर्थात् जैसे चीरने, काटने, तपाने और कूटने से स्वर्ण की परीक्षा होती है। उसी प्रकार त्याग, शील, गुण एवं कार्य से मनुष्य की परीक्षा होती है । मेरी गुरुणी महासती उमरावकंवरजी 'अर्चना' म. सा. इस कसौटी पर खरी उतरी हैं। विपत्तियों की पाठशाला में अापने साधना की परीक्षा उत्तीर्ण की है।
आपके मनोमंथन से जो उज्ज्वल मणियाँ जन्मी हैं, उनसे अनेकों का उद्धार हो चुका है। आप जहाँ भी जाती हैं अपनी मधुर और प्रभावशाली वाणी से सभी को आकर्षित कर लेती हैं । न जाने कितनी दुःखी आत्माओं को आपने सन्मार्ग दिखाया है। प्रवचनकला में आप निपुण हैं। वचन, शब्द में जब प्र. उपसर्ग लगाकर प्रवचन बन जाता है, तब उसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है । म० सा० के प्रवचन सूर्य की उन किरणों के समान हैं जो रोशनी के साथ-साथ स्फूर्ति भी देती हैं । जैसे सूर्य की किरणों के आते ही हम नींद से जाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके प्रवचन मोह-निद्रा से जगाने वाले होते हैं । धर्म की आवश्यकता क्यों है ? इस विन्दु को स्पष्ट करते हुए 'अर्चना और आलोक' में आपका कथन है--"धर्म की शक्ति अचिन्त्य है, अपरिमित है । यही मानव को महामानव बना सकती है और पतित से पतित व्यक्ति को भी सन्त महात्मा के पद पर आसीन कर सकती है । धर्माराधन करके ही नर नारायण बनता है, प्रात्मा परमात्मा पद को प्राप्त होता है। इसलिए जीवन को धर्ममय बनाना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। "धर्मेण हीना पशुभि समाना:" ये वचन भी धर्म की आवश्यकता को सिद्ध करते हैं। धर्मरहित मनुष्यों को पशु तुल्य ही समझना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों का जीवन पशुओं से ऊँचा नहीं होता, जो कि अपनी उदरपूर्ति और शारीरिक सुख-सुविधा के साधनों को जुटाने में ही मृत्यु-पर्यन्त लगे रहते हैं और इन्हें अधिक से अधिक प्राप्त करके सुख का अनुभव करते हैं । वे भूल जाते हैं कि सुख पैसा नहीं मांगता, सुख संग्रह नहीं मांगता, सिर्फ सन्तोष मांगता है।"
गुरुणीजी सा० के प्रवचन मधुर होते हैं । श्रोता उनके प्रवचन सुनते हुए ऐसा अनुभव करता है जैसे सन्तप्त मन पर जलद छा गये हों और नन्हीं नन्हीं रसकणिकानों से मन अभिषिक्त हो गया हो । आपकी वाणी तो मधुर है ही, आप कभी भी ऐसे कटुशब्दों का प्रयोग नहीं करतीं जिनसे कोई आहत हो जाए। आप सदैव रोचक बात हंसते हुए कहती हैं, यही आपकी विशिष्ट शैली है । हँसते हुए किसी के मन का मैल हटा देना और उसे स्वस्थ चिन्तन प्रदान करना कोई सहज कार्य नहीं है । अपने कथन को रोचक बनाने के लिए आप कहीं स्वयं संत कवियों के उद्धरण
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