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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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जयमल्ल गणे
सरे ।
सोमरावजि- अच्चणा ।। ७ ।।
मारवाड-पदेसस्स, हंसीव साहुणी खाया, ( इस प्रकार ) वह मारवाड प्रदेश के श्रीमज्जय मल्लजी महाराज के गणरूपी सरोवर में हंसिनी के समान साध्वी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' ( नाम से ) प्रख्यात है ।
सा
समण संघमि सत्थंबुजे कीलेइ,
महि सोहिया । जोगरया जसंसिणी ॥ ८ ॥
वह ( साध्वी रूप हंसिनी) युवाचार्य श्रीमान् मिश्रीमलजी 'मधुकर' के द्वारा शोधित ( सुसंस्कारित) होकर अथवा ( भक्तरूपी) मधुकरों (भौंरों) से शोभित होती हुई, योग में लीन होकर वह यशस्विनी शास्त्र रूपी कमलों (के वन) में क्रीडा कर रही है, श्रमण संघ ( रूपी महा सरोवर ) में ।
लच्छित्ता अणेगा खु, जाए जिण-पाय-विलीणा सा, मत्ता
चरण - किंकरा ।
अन्नेस हैं, वह
अनेक लक्ष्मीपुत्र जिसके सचमुच ही चरण - सेवक चरण ( -कमलों) में लीन बनकर ( गुण- पराग के भक्ति रूप पान में ) निरुपद्रव अचल स्थान का अन्वेषण करती है ।
सिवं ॥ ९ ॥
जा पिया वरो जोगी धम्मपत्तो सए रम्रो । तस्स कण्णा सुमग्गम्मि, धीरा गच्छइ जोइणी ॥ १० ॥
( साध्वी ) जिनेश्वरदेव के
मत्त बनकर, शिव
जिसके पिता धर्म पाकर अपने - प्रात्म भाव ) में लीन श्रेष्ठ योगी हो गये हैं, उसकी योगिनी धैर्यवती कन्या सुमार्ग - मोक्षमार्ग में चल रही है ।
( जब ) वह मधुर स्वर से भारती - सरस्वती के समान लोगों के अपने हृदय में अद्भुत सुख होता है ।
महु-सरेण वक्खाणं, वाएइ भारईव सा । लोयाण हियए सोक्खं, अप्पणी होइ अब्भुजं ।। ११ ।। व्याख्यान देती है, ( तब )
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सोहइ सिस्सणी - संधे, जहा कुमोयणी- विंदे, (अपनी ) शिष्याओं के समूह में वह ध्यान मुद्रा में [ स्थित ऐसी ] सुशोभित होती है, जैसे कुमुदनियों के वृन्द में उतर कर चन्द्रमा स्थिर हो गया हो ।
काण - मुद्दाइ सा वरा | श्रोयरिश्रो ससी थिरो ।। १२ ।।
पयंबुजेहि जाए हु, हिट्ठा भारह - मेइणी |
मंगल- दंसिणी देवी, सा पियकारिणी सुभा ।। १३ ।। ताए सुह-पवज्जाए, सयद्वे समुट्ठिए । हिट्ठो जणाणविदो हि, करेइ अभिनंदणं ॥ १४॥
अर्चनार्चन / ४
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