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________________ तुतीय खण्ड • अ 4 जा र्च ज . ले कर . ' 5 ' आगन्तुक श्रेष्ठी यह सुनते ही भौंचक्का सा होकर रह गया। उसने तो गांधीजी को आश्रम में पानी भरनेवाला मजदूर ही समझा था। शर्मिन्दा होकर उसने पहले गांधीजी के पैर छुए, क्षमा मांगी और तत्पश्चात् कुछ समय बातचीत करके आश्रम को काफी धन भेंट में देकर चला गया। यह था सत्साहित्य के पठन एवं चिन्तन का परिणाम, जिसने गांधीजी जैसे व्यक्ति को लोह-पुरुष बना दिया तथा उनके विचारों और कार्यों ने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र कराया। उनके शब्दों में और आह्वान में ऐसी चामत्कारिक शक्ति प्रागई जिसने समूचे भारतवासियों को क्रांति के एक ही झंडे के नीचे एकत्र कर लिया और वह भी अहिंसा की भावना के साथ । गांधीजी के समान ही अनेक महापुरुष उत्तमोत्तम पुस्तकों को पढ़कर ही अपने जीवन को उत्कृष्ट बना सके हैं। जवाहरलाल नेहरू स्वयं उच्चकोटि की पुस्तकों के लेखक और पाठक थे। उनके विचारानुसार उत्तम पुस्तक वह होती है जो मनुष्य को अधिक चिन्तन के लिये मजबूर कर दे । अमेरिका के ख्यातिप्राप्त राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को बाल्यावस्था में जीवन-यापन के लिये कठोर संघर्ष करना पड़ता। किन्तु इसके बावजद भी वे कई मील पैदल चलकर नगर के पुस्तकालय से पुस्तकें लाते थे तथा रात्रि को चल्हे की लकड़ियों के प्रकाश में ही उन्हें पढ़ा करते थे। उच्च साहित्य के प्रति उनकी रुचि ने ही आगे चलकर उन्हें राष्ट्र के शीर्ष पर पहुँचा दिया था। इसी प्रकार गोपालकृष्ण गोखले एवं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि अपनी अभावग्रस्त स्थिति होने के कारण तथा घर में प्रकाश न कर सकने पर भी सड़क पर लगे लैम्पपोस्टों के क्षीण प्रकाश में पुस्तकें अवश्य पढ़ते थे। वे यह कभी नहीं भूलते थे कि शरीर को चलाने के लिये जिस प्रकार भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मस्तिष्क के लिये उच्चकोटि की पुस्तकें पौष्टिक आहार या खुराक का कार्य करती हैं। उपनिषदों में कहा गया है-"स्वाध्याय करने में व्यक्ति को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जीवन को उन्नत बनाने वाली पुस्तकों का पठन और उस पर चिन्तन-मनन करना ही सच्चा स्वाध्याय है। जैनदर्शन में भी यही कहा गया है-- "न वि अत्थि न वि अ होहिइ, सज्झायसमं तवोकम्मं ।" -बृहत्कल्पभाष्य ११६९ अर्थात्-स्वाध्याय के समान दूसरा तप न कभी अतीत में हमा है, न वर्तमान में है और न भविष्य में कभी होगा। ल vio जिस प्रकार पात्मिक उन्नति के लिये धर्म-ग्रथों का स्वाध्याय अर्थात् पुनः पुनः पारायण करना अत्युत्तम है, इसी प्रकार जीवन को मानवोचित गुणों से संयुक्त करके घर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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