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भाव-सुमन
0 महेन्द्रमुनि 'कमल'
धन्य हुए वे क्षण, जव दादिया की पावन भूमि ने नव आलोक हेतु एक 'दिया' दुनिया को दिया। देख उसके भावों को जन-मानस औचक ही चौंका, गद्गद होकर बाग-बाग हो गई ग्राम्य भूमि नोखा ।। दिशात्रों ने देखा तुम्हें अल्पवय में लेते हुए दीक्षा, चन्दनबाला की तरह मांगते हुए भिक्षा । तुम्हें देख ऐश्वर्य के पांव जड़ हो गये, माया की मुस्कान भी फीकी लगने लगी, हिंसा के पांवों में बंध गये पत्थर, धर्म की ध्वजा लहराने लगी। दादिया का ज्योतिपुंज जगती में 'अर्चना' बनकर चलने लगा कोटि-कोटि अंतर को आलोकित करने हेतु सती के स्वरूप में सतत जलने लगा।। वीर के पथ पर चलते हुए देख दुनिया स्वर्णजयंती मना रही है, वन्दन अभिनंदन की स्वर्णिम वेला में भावों के सुमन चढ़ा रही है, मेरे भी कुछ भाव समर्पित हैं, महासति उमरावकुंवरजी ! स्वीकार करो, युग-युग पर्यन्त आलोकित रह जन-जन का उद्धार करो !!
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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/ ११
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