SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धरती-सी क्षमता है इनमें कमलनाल - सी मृदुता है । अन्तर में करुणा का सागर, गंगा-सी पावनता है । मुख-मंडल पर अकथ सौम्यता शिशु के सदृश सरलता है । किन्तु नियम, यम, संयम में तो वज्र सरीखी दृढ़ता है । जीवन मधुर मधुर वचनामृत, उद्बोधन द्वारा भरता । मंत्र-मुग्ध श्रोताओं का मन-मानस आप्लावित करता । विविध- प्रदेशी भाषाओं का निर्भर निराबाध बहता । धर्म, पंथ श्री सम्प्रदाय के विष से सदा परे रहता । मनुज-धर्म को विश्ववन्द्य करने की महासती उमरावकुंवर की जग ने जिसने सुनी साधक थे । उपासक थे । शासनसेवी व्रजमुनि सच्चे संत और दृढ़ युवाचार्य मुनि 'मधुकर' ज्ञानागार महान गुरुवर्यो का अग्रगण्य शिष्यत्व आपने प्राप्त किया । उनका मस्तक गर्वोन्नत कर अनुपम प्रतिफल उन्हें दिया । नगर-नगर श्री ग्राम-ग्राम में जाकर अलख जगाई है । काश्मीर के चप्पे-चप्पे तक सौरभ पहुँचाई है । परीषहों, उपसर्गों ने पग-पग पर पथ अवरुद्ध किया, महाकाल ने समय-समय पर निष्फल ही पर झाँक लिया । ठानी है । कहानी है । कदम थके ना रुके कभी, गिरि, घाटी, गहन - गुफाओं में । बढ़े निरंतर बीहड़ श्री हिंसक पशुओं के सायों में । उनके ही पहरों में जब-तब निर्भय हो विश्राम किया । अन्तर कभी न माना फणिधर नागदेव या गायों में । जहाँ जाति के जैन-जनों का मद्यमांस ही खाना था । धर्म नाम के हौवे को जिनने न कभी पहचाना था । प्रथम 'अर्चना' जी से ही जैनत्व जिन्होंने जाना था । नव-जीवनदायिनि को प्रति उपकृत होकर गुरु माना था । उनकी दिव्य, विलक्षण प्रतिभा सबकी जानी-मानी है । महासती उमरावकुंवर की जग ने सुनी कहानी है । लिया । किया । प्रथम खण्ड / ३७ पाई । परम पुनीतात्मा ने जब धरती पर प्राकर जन्म मात्र सात दिन में जननी ने स्वर्ग लोक प्रस्थान जाना नहिं मातृत्व और माँ की पहचान न हो कभी न माँ का आँचल प्रोढ़ा, कभी न लोरी सुन पाई । शैशव गया बाल्यवय में ही परिणय का वरसूत्र बंधा । चंद मास में ही 'साथी' को काल ले गया हो अंधा । Jain Education International For Private & Personal Use Only आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy