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तृतीय खण्ड
दूसरी ओर तत्त्वज्ञान अथवा धर्मग्रन्थों के विषय से पूर्णतया अनभिज्ञ होते हुए भी अनेक व्यक्ति पूर्णतया धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उनके व्यवहार में कोमलता, निष्कपटता, नि:स्वार्थता, निरहंकारिता तथा स्नेह, करुणा, सद्भावना, निर्लोभता तथा वाणी में माधुर्य आदि ऐसे लक्षण पाए जाते हैं, जिन्हें हम धर्म की संज्ञा दे सकते हैं । साथ ही जान सकते हैं कि धर्म केवल किताबी ज्ञान नहीं है, भिन्न-भिन्न प्रकार की वेश-भूषा पहनने और बाह्य क्रियाकांडों में नहीं है, अपितु वह प्रात्मा में या मन में निहित होता है । अगर हमारा हृदय क्रोध से जलता रहे तथा उससे ईर्ष्या, द्वेष और कपट का धुआँ उठता रहे, उसमें लोभ का भूत और क्रूरता का राक्षस छिपा बैठा रहे तो फिर बाहरी धार्मिक क्रियाओं के करते रहने पर भी धर्म का अस्तिव कहाँ मिलेगा ! अगर मन में अड्डा जमाए हए विषय-कषायादि कम न हों तो यह निश्चयपूर्वक समझ लीजिये कि मनुष्य की तमाम धार्मिक क्रियाएँ धर्मरूप नहीं अपितु धर्माभास रूप होंगी। ऐसी क्रियाएँ प्रास्था के दीपक को भी गलत मार्ग पर रखती हुई उससे लाभ न उठाकर भारभूत, हानिकारक और मिथ्याभिमान का कारण बन जाती हैं।
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बंधुनो! कहने का अभिप्राय यही है कि मानव का अन्य प्राणियों के प्रति मधुर व्यवहार और उसके सदगुण ही वे कसौटियाँ हैं, जिनके द्वारा कसे जाने पर धर्म का सच्चा स्वरूप ज्ञात होता है। धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे जानने के लिये धर्म-ग्रन्थों का ढेर पढ़ा और रटा जाय । वह आचरण की वस्तु है। उसे हमारी प्रत्येक जीवन-प्रवृत्ति में प्रोतप्रोत हो जाना चाहिये अन्यथा गंभीर ज्ञानाभ्यास भी निरर्थक साबित होता है।
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तोता एक वाक्य रट लेता है--"बिल्ली पाए तो उड़ जाना।" किन्तु जब बिल्ली उस पर झपटने को हो, उस समय अपने रटे हुए पाठ का उपयोग न करे तो क्या वह बच सकेगा ? नहीं, क्योंकि उसने अपनो रटी हुई बात को अमल में लाना नहीं सीखा । पर तोता तो पक्षी है । वह भूल कर सकता है किन्तु बुद्धि, ज्ञान और विवेक के धनी व्यक्ति भी ऐसा ही नहीं करते?
सच्चा संन्यासी कौन ?
एक संन्यासी ने विचार किया- “मैं पहाड़ों में जाकर एकान्त में ऐसी साधना और तपस्या करूगा कि मेरे समस्त दोष स्वयं नष्ट हो जाएंगे।"
अपने संकल्प के अनुसार वह हिमालय पर्वत पर जा पहुँचा और तपस्या करने लगा। कंद-मूल खाकर वह अपनी क्षुधा शांत कर लेता और अपने कमंडलु को जल पीने के काम में लेता। शेष समय में वह तपस्या-साधना में लगा रहता। जब कई वर्ष इस प्रकार व्यतीत हो गए और उसे विश्वास हो गया कि मेरे सम्पूर्ण दोष तपस्या से जल गए तो वह अत्यन्त सन्तुष्ट
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