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________________ साधना की सप्राणता कायोत्सर्ग / २७९ प्रमादवश उसमें यदि कहीं अतिचार लग जाते हैं, भूल हो जाती हैं, वे संयम रूप शरीर के घाव हैं, जख्म हैं। कायोत्सर्ग उन पावों के लिए मरहम का काम देता है। यह वह रामबाण प्रोषध है, जो अतिचार रूपी घावों को पूर देती है और संयम शरीर को प्रक्षत बनाकर संपुष्ट करती है । जो उज्ज्वल - वस्त्र बहुत ही मलिन हो जाता है वह किस से साफ किया जाता है ? उसे किससे धोया जाता है ? पानी से ही धोया जाता है, साबुन लगाकर साफ किया जाता है। एक बार नहीं, प्रत्युत अनेक बार मल मल कर धोया जाता है। ठीक इसी प्रकार संयमरूपी वस्त्र को जब प्रतिचारों का मल लग जाता है, भूलों के दाग लग जाते हैं तो अध्यात्म-साधक उन दागों को प्रतिक्रमण रूप जल द्वारा स्वच्छ करता है। फिर भी जो दाग नहीं मिटते, कुछ शुद्धि का अंश रह जाता है उन्हें कायोत्सर्ग के उष्ण जल से दुबारा धोया जाता है, उन्हें निर्मल बनाया जाता है । निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग ऐसा जल है जो हमारे जीवन के मल के हर कण को गलाकर साफ करता है और संयम-जीवन को सम्यक् प्रकार से परम शुद्ध बना देता है। कायोत्सर्ग वास्तव में एक अपूर्व शक्ति है, जिसके द्वारा साधक धारमा की शुद्धि करता है, गुणों की वृद्धि करता है। साधक निष्पाप हो जाता है। इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य तथ्य है कि प्रायश्चित्त के अनेक रूप है, जैसा दोष होता है उसी के अनुपात में या उसी प्रकार का प्रायश्चित्त उस दोष की शुद्धि करता है । कायोत्सर्ग उन सब पाप कर्मों का प्रायश्चित्त हूँ, कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा वे सब पापकर्म घुलघुल कर साफ हो जाते हैं। फलतः, श्रात्मा निर्मल, निष्पाप और विशुद्ध हो जाता है । : कल्पना के लोक में जरा 1 1 भगवान् महावीर की स्पष्ट भाषा में पापकर्म भार के सदृश है उड़ान भरिये मंजिल दूर है महीना जेष्ठ है। मार्ग भी ऊँचा नीचा है और मस्तक पर मन भर पत्थर का बोझ गर्दन की हर नस को तोड़ रहा है, यह एक विकट स्थिति है । इस विकट परिस्थिति में भार उतार देने पर उस व्यक्ति को अपार आनन्द का अनुभव होता है। यही दशा पाप कर्मों के भार की भी है। कायोत्सर्ग के द्वारा इस भार को उतार दिया जाता है, उसे फेंक दिया जाता है । कायोत्सर्ग यह एक ऐसी विश्रामभूमि है, जहाँ पापों का भार हल्का हो जाता है ।" सब ओर प्रशस्त धर्म ध्यान का सुनहरा - वातावरण बन जाता है । फलतः श्रात्मा प्रति स्वस्थ, निराकुल औौर धानन्दमय हो जाता है । कायोत्सर्ग एक यौगिक शब्द है। काय और उत्सगं इन दो शब्दों के योग से 'कायोत्सर्ग' शब्द की निष्पत्ति हुई है । तात्पर्य है - प्रतिक्रमण के पश्चात् साधक प्रमुक समय तक अपने शरीर की ममता का त्याग कर प्रात्मस्वरूप में लीन होता है वह उस समय न संसार के पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, सब ओर से सिमट कर मात्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक विशिष्ट साधना है। बहिर्मुखी स्थिति से साधक जब अन्तर्मुखी स्थिति में पहुँच जाता है तो वह राग और द्वेष की गन्दगी से बहुत ऊपर उठ जाता है । अनासक्त और अनाकुल स्थिति का रसास्वादन करता है । शरीर तक की मोह-माया का परित्याग कर देता है । इस स्थिति में कोई भी उपसर्ग श्रा जाए, विकट संकट आ जाए, वह उसे समभाव से सहन करता है । कायोत्सर्ग में जब साधक अवस्थित होता है तब सर्दी हो, । ८. काउसम्मेणं तीयपड़प्पन्नं पायच्छितं विसोहेइ विसुद्धपायच्छिते य जीवे निश्वयहियए हरियभरुव भारवहे पसत्थज्भाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ । —उत्तराध्ययन सूत्र २९ । १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीवो संसार समुद्र में www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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