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चतुर्थ खण्ड / २८० गर्मी हो, मच्छर हों, दंश हो, कैसे भी संकट हों, सब पीड़ाओं और व्यथानों का समभाव से सहन करना ही काय का त्याग है। कायोत्सर्ग की साधना के द्वारा शरीर की ममता कम की जाती है। कायोत्सर्ग का समुद्देश्य है- शरीर की ममता का त्याग करना। यह जीवन का मोह, यह शरीर की ममता साधना के लिए सब से बड़ी बाधा है । जीवन की आशा का पाश मनुष्य को अपने में उलझाए हुए है । पद-पद पर जीवन का भय भी साधना-मार्ग से पराङ मुख होने की स्थिति खड़ी कर देता है। यही कारण है कि इन सब बन्धनों से मुक्ति पाने का और सर्व दुःखों का अन्त करने का एकमात्र अमोघ उपाय "कायोत्सर्ग" है।' कायोत्सर्ग की साधना का साधक यह चिन्तन करता है कि यह शरीर पृथक् है और मैं पृथक हूँ। मैं अविनाशी तत्त्व हूँ, यह शरीर क्षणभंगुर है । कोई परवस्तु मेरी नहीं है । शरीरादि परवस्तुएँ जड़ हैं और मैं चेत । परवस्तु के साथ प्रात्मतत्त्व का संयोग और वियोग ही दुःख है। इन संयोगों के कारण ही आत्मा संसार-कानन में परिभ्रमण करता है । अतः साधक सोचता है कि मैं अकेला हूँ, एक हूँ इस संसार में मेरा कोई नहीं है। और मैं भी किसी का नहीं हैं।" ज्ञानदर्शन मेरा स्वरूप है। माता-पिता, पुत्र ये सभी मुझसे पृथक हैं। यहाँ तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, वह भी आत्मा से भिन्न है ।२ प्रात्मा और अनात्मा का भेद-विज्ञान होना, कायोत्सर्ग साधना का संलक्ष्य है। कायोत्सर्ग की साधना में न बोलना है, न हिलना है । साधक एक स्थान पर पत्थर की चट्टान के सदृश निश्चल एवं निःस्पन्द दण्डायमान खड़े रहकर अपलक दृष्टि से शरीर का ममत्व त्याग कर प्रात्मभाव में रमण करता है, कायोत्सर्ग की स्थिति में साधक को यदि कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाये या कोई द्वेषपूर्वक बसूले से उसके शरीर को छीले, चाहे उसका जीवन रहे या तत्क्षण मृत्यु प्रा जाए, सब स्थितियों में समचेतना रखता है । वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। जो कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यञ्च संबंधी सभी प्रकार के उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है, उसका कायोत्सर्ग ही वस्तुतः शुद्ध होता है।'४ जिस प्रकार कायोत्सर्ग में निःस्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने लगते हैं, दुःखने लगते हैं । प्रत्येक अंग में एक प्रकार की पीड़ा होती है । उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा आठों ही कर्म-समूह को पीड़ित करते हैं । उन्हें विनष्ट कर डालते हैं ।' ५ कायोत्सर्ग में सब दुःखों और क्लेशों की जड़ ममता का शरीर से सम्बन्ध तोड देने के लिए साधक को यह सुदढ़
९. राजवार्तिक ९।१०।२६ १०. अमितगति द्वात्रिंशिका, श्लोक-२८ ११. प्राचारांग सूत्र १-८-६ १२. सूत्रकृतांग सूत्र १-२-२३ । १३. वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो ।
देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स ।।
-आवश्यक नियुक्ति, गाथा १५४८ प्राचार्य भद्रबाहु १४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५४९, प्राचार्य भद्रबाहु १५. काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स, भज्जति अंगमंगाई। इह भिदंति सुविहिया अट्टविहं- कम्मसंघायं ।।
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा-१५५१ ।।
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