SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टांगयोग : एक परिचय प्रा० अरुण जोशी अाज से कुछ साल पहले योग को गुप्तविद्या मानकर उसकी चर्चा गुरु-शिष्य तक ही सीमित रहती थी किन्तु अब परिस्थिति बदल चुकी है। योग के बारे में भारत में और भारत के बाहर चर्चा होती है। योग के बारे में सच्ची जानकारी देने के लिए यह निबन्ध लिखा गया है। प्रासन का अभ्यास और तदनुसार शारीरिक प्रक्रिया करके शरीर को सुदृढ बनाना योग है, ऐसा कोई कहे तो यह भ्रम है । सम्मोहन से किसी पर वशीकरण करना भी योग नहीं है। याग के अभ्यास से प्रारंभ में इस तरह का अनुभव यद्यपि होता है फिर भी यह तो प्रारंभिक दशा का संकेतमात्र है। योग से ऊर्वीकरण होता है। अज्ञान का नाश होने के बाद शाश्वत तत्त्व ब्रह्म से जो युक्त करे वह योग है। प्रतएव कहा गया है कि "यूज्यते असौ योगः" । अष्टांग-योग का आचरण करने से ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग सिद्ध करने में सफलता मिलती है। अतः अष्टांगयोग का महत्त्व सर्वमान्य रहा है। यह प्राचरण करने में कोई सम्प्रदाय या देश या काल की परिस्थिति इसमें बाधक नहीं होती है । महर्षि पतंजलि ने अष्टांगयोग का अति स्पष्ट चित्र प्रदर्शित किया है। उनके योगसूत्रों में ३० सूत्रों में अष्टांगयोग के विषय में लिखा गया है। पतंजलि के बारे के कहा गया है कि उन्होंने योगशास्त्र की रचना करके हमारे चित्त की भ्रमणा दूर की है, व्याकरण शास्त्र की रचना करके हमारी वाणी को निर्मलता दी है, वैद्यकशास्त्र की रचना करके हमारे शरीर को निर्मल किया है । उनका समय ई. पू. चौथी सदी माना जाता है। योग के आठ अंग इस प्रकार हैं-यम, नियम, प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अब प्रत्येक के विषय में विस्तृत जानकारी दी जाती है । १, यमः-यह प्रथम अंग है और इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का समावेश होता है। इन व्रतों का पालन पूर्णरूपेण करने का आदेश है। इन व्रतों को सार्वभौम अर्थात् सर्वदेशीय महाव्रत कहा गया है। इनके पालन से व्यक्ति वैररहित सत्यवादी, सर्व सम्पत्तिशाली, वीर्यवान और जन्मजन्मांतरज्ञाता बन सकता है। २. नियम-नियम द्वितीय अंग है और इसमें शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश होता है। शौच से एकाग्रता प्राप्त होने से बुद्धि निर्मल होती है। संतोष से अद्वितीय सुख प्राप्त होता है। तप से शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि प्राप्त होती है। स्वाध्याय से इष्टदेव का दर्शन सुलभ होता है। ईश्वरप्रणिधान से समाधि की स्थिति प्राप्त करने में सुविधा प्राप्त होती है। आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy