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________________ मानवता के साधनासका मानवतन अनन्त दिव्यताओं का वरण करने एवं लघु से महान बनने के लिए प्राप्त होता है। किन्तु मानव की जीवन-धरती पर खड़ा होने वाला मानवता का प्रासाद भी गगनचुम्बी भव्यप्रासाद की तरह नींव की अपेक्षा रखता है । मन का मानव बने बिना मानवतन प्राप्त हो जाने का कोई अर्थ नहीं है। मानव और मानव-जीवन की तथ्यपरक व्याख्या करते हुए विज्ञजनों ने अपनी-अपनी अनुभूतियाँ इस रूप में व्यक्त की हैं-जीवन का उद्देश्य भौतिक ऐश्वर्य और ऋद्धि प्राप्त कर लेना नहीं है, अपितु उस अान्तरिक सौन्दर्य, समृद्धि को प्राप्त करने की प्रोर अग्रसर होना है जिसमें प्रानन्द, अभय और अनुराग की धारा प्रवाहित है। एतदर्थ मानव के समक्ष आज बड़े-बड़े प्रादर्शों का शंखनाद करने की आवश्यकता नहीं है। इनकी अोट में कर्णप्रिय शब्दावली के स्वर भी गूंज रहे हैं, लेकिन उनमें प्रोज नहीं है। अतएव बजाय इनके उन जीवन-सूत्रों की आवश्यकता है जो मानवमात्र के भ्रान्त, क्लान्त, श्रान्त अन्तःकरण को जगमगा दें और जीवनपथ स्पष्ट दिखने लगे। मानव की मौलिक आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित हैं। लेकिन समस्या है परस्पर विरोध रूप में सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय प्रादि कर्तव्यों के पालन करने की । इसके समाधान के लिये विश्व वाङमय की प्रत्येक शाखा-प्रशाखा ने विस्तार से प्रकाश डाला है, लेकिन उन सबका यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है । अतः मानवता की सुरक्षा और मानव विकास के लिये कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने मार्गानुसारी के गुणों के रूप में जिन साधना-सूत्रों का व्याख्यान किया है, उनका यहाँ नामोल्लेख कर देना पर्याप्त है। उनमें मानवता की दिव्य कला सीखने के साथ सरल, सरस, सुबोध अर्थ गंभीर शैली में मानव-जीवन की सर्वांगीण सुरम्य झांकी उपस्थित है । यथा न्यायनीति से धनोपार्जन करना। शिष्ट पुरुषों के प्राचार की प्रशंसा करना । कुल और शील में समान भिन्न गोत्रवालों से विवाह-सम्बन्ध करना । पापभीरु होना । प्रसिद्ध देशाचार का पालन करना । किसी की और विशेष रूप में राजा आदि की निन्दा न करना । एकदम खुले और गुप्त स्थान पर घर नहीं बनवाना। बाहर निकलने के अनेक द्वारों वाला घर न हो। सज्जनों की संगति करना। माता-पिता आदि गुरुजनों की सेवा-भक्ति करना। चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले प्रसंगों से दूर रहना । निन्दनीय कार्यों में प्रवृत्ति न करना । प्राय के अनुसार व्यय करना। आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्रादि पहनना । प्रतिदिन धर्म श्रमण करना । अजीर्ण होने पर भोजन न करना। नियत समय पर संतोषपूर्वक भोजन करना । अविरोध रूप से धर्मादि पुरुषार्थचतुष्टय का सेवन करना। अतिथि, साधु, दीन जनों का यथायोग्य सत्कार करना । दुराग्रह नहीं करना । गुणानुरागी होना। देश और काल के प्रतिकल आचरण न करना । अपनी शक्ति-सामर्थ्य की मर्यादा को समझ कर कार्य-प्रवृत्ति करना। सदाचारी और गुणी जनों की विनय-भक्ति करना । अधीनस्थों का पालन-पोषण करना । दीर्घदर्शी होना । अपने हिताहित को समझना। कृतज्ञ होना। लोकप्रिय होना । लज्जाशील होना। दयावान होना। प्रसन्नहृदय होना । परोपकार करने में तत्पर रहना । कामादि विकार एवं इन्द्रियजयी होना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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