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द्वितीय खण्ड | ७२ आपके मन पर इस घटना का ऐसा प्रभाव पड़ा कि आपने कभी नारियल की गिरी नहीं खाई । आपकी बड़ी बहन श्री सौभाग्यकंवरजी का विवाह अजमेर के गांव दौराई में हुआ था । जब कभी आप अपनी बहन के साथ उसके ससुराल जातीं, बहन के देवर श्री चम्पालालजो के साथ वार्तालाप में आपका मन बहुत लगता। घंटों बैठे किसी विषय पर चर्चा करते रहते। श्री चम्पालालजी कभी कभी तो निरुत्तरित हो जाते। कभी-कभी दोनों में बालसुलभ कहा-सुनी भी हो जाती, किन्तु दूसरे ही पल एक दूसरे को मना लेते और खाने के लिए जो भी मिलता बाँट कर खाने लगते । कालान्तर में आप दोनों प्रतिज्ञाबद्ध हुए और पति रूप में श्री चम्पालालजी कुछ कदम चलकर साथ छोड़ गये। अभी आपके हाथों पर विवाह के मेंहदी के फूल फीके भी न पड़े थे कि पति की मृत्यु हो गई । चिता-अग्नि में मांग का सिन्दूर जल गया। कोमल कलाइयों की चूडियाँ टूट गईं। माथे की बिन्दिया अंगारे में बदल गई।
बचपन में ही आप किसी जीव का वध देखतीं तो मन व्याकुल हो जाता। सोचने लगतीं भोले व निर्दोष पशु ने किसी का क्या बिगाड़ा है। आपके मन में हरी-भरी वनस्पतियों के प्रति भी दया थी। कभी कोई हरी सब्जी टूट जाती तो आप पुनः उसे जोड़ने की चेष्टा करतीं।
बचपन की इन्हीं संघर्षमयी व दिव्य घटनाओं की क्रोड़ से जन्म हुआ अध्यात्मज्योति, काश्मीर-प्रचारिका, मालवज्योति, श्रद्धेय श्री उमरावकुंवर जी 'अर्चना' म. सा. का, जो गत पचास वर्षों से अनवरत साधनापथ पर अर्चनादीप की तरह प्रज्ज्वलित हैं, जो घायल मानवता के चरणों के अनुलेप सदृश है, जिनके जीवन से यही आवाज आती है 'नियति जिसे बहुत दुःख देती है, उजाला भी उसे मिलता है ।' आपकी दीक्षा की स्वर्ण जयन्ती से जन-जन का मानस तप और त्याग की खुशियों से भर गया है।
-राजकीय महाविद्यालय, ब्यावर (राज.)
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