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________________ वीतराग-योग | २५ सिद्धि-साध्य की उपलब्धि सिद्धि है। सिद्ध--जो सिद्धि प्राप्त कर उससे सदा के लिए अभिन्न हो गया है, वह सिद्ध है। यह तो साधना-तत्त्वों का सामान्य विवेचन हुमा । प्रागे इन्हीं का कुछ विस्तार के साथ विवेचन करते हैं। साधक का सर्वप्रथम आवश्यक कार्य यह है कि वह अपने साध्य का निर्णय करे। साध्य वही होता है जो सत्य हो, यथार्थ हो। सत्य वही होता है जो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में समान रहे, जिसमें भेद व भिन्नता न हो। उसमें निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं (१) वह सार्वजनीन होता है अर्थात वह मानव मात्र को समान रूप से इष्ट होता है। जो किसी को इष्ट हो और किसी को इष्ट न हो, वह साध्य नहीं हो सकता। कारण कि उसमें भेद व भिन्नता है, वह सीमित है। (२) वह सार्वदेशिक होता है अर्थात् वह सर्व देशों में, सर्व क्षेत्रों में समान रूप से इष्ट होता है । जो किसी एक देशवासी के लिए इष्ट हो और अन्य देशवासियों के लिए इष्ट न हो, वह साध्य नहीं हो सकता । कारण कि उसमें भेद व भिन्नता है, वह सीमित है। (३) वह सार्वकालिक होता है अर्थात् वह सदा इष्ट होता है। जो किसी काल में इष्ट हो और किसी काल में इष्ट न हो, कभी इष्ट हो कभी इष्ट नहीं हो, वह साध्य नहीं हो सकता । कारण कि वह भेदभिन्नता युक्त सीमित है। (४) वह सार्वभाविक होता है अर्थात सर्व अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में अभीष्ट होता है। जो किसी अवस्था व परिस्थिति विशेष में इष्ट हो और अन्य अवस्था व परिस्थिति में इष्ट नहीं हो, वह साध्य नहीं हो सकता । कारण कि वह सीमित है। सत्य ही साध्य है । सत्य में भेद व भिन्नता नहीं होती है, जैसे (१) त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण होता है, (२) तीन और चार मिलकर सात होते हैं आदि ये सब मनुष्यों के लिए सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं में समान रूप से स्वीकार्य हैं। इसमें तर्क व ननुनच करने का गुंजाइश या अवकाश नहीं है। जिसमें भेद व भिन्नता है वह वर्ग देश, काल, अवस्थाविशेष तक सीमित होता है । जो सीमित होता है वह अपूर्ण होता है । जो अपूर्ण होता है वह दोषयुक्त होता है । अपूर्णता दोष की द्योतक होती है। जो जितना अपूर्ण है वह उतना ही दोषयुक्त है। वस्तुतः दोष का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता क्योंकि यह नियम है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व होता है वह अविनाशी होता है, उसका प्रात्यंतिक विनाश संभव नहीं होता। अतः यदि दोष का स्वतंत्र अस्तित्व होता तो कोई भी साधक दोष से मुक्त नहीं हो सकता। वस्तुतः दोष गुण की अपूर्णता या कमी का नाम है। जैसे अहिंसा गुण में कमी ही हिंसा रूप दोष है। सत्य बोलने में कमी ही मिथ्याभाषण का दोष है, विराग गुण में कमी ही राग का दोष है प्रादि । प्राशय यह है कि जो सीमित है, वह अपूर्ण है, कमी युक्त है, अतः वह साध्य नहीं हो सकता। साध्य सदैव असीम, अनंत, परिपूर्ण होता है । आइये, अब यह विचार करें कि ऐसे कौन से तथ्य या गुण हैं जो सार्वजनिक, सार्वदेशिका, सार्वकालिक और सार्वभाविक हैं अर्थात् जो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.janelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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