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________________ "तान्त्रिक योग": स्वरूप एवं मीमांसा / २०७ प्राप्ति में भी सहायक होती है, जबकि रस, औषधि तथा क्रियासमूहों के अभ्यास और साधनों से प्राप्त कल्पितसिद्धि क्षणस्थायी एवं स्वल्पसुखावह कही गई हैं। __ आध्यात्मिक एवं साधना-सम्बन्धी रहस्यों का उद्घाटन केवल योग से सम्भव नहीं होता है, यह बात बहत प्राचीनकाल में ही प्राचार्यों ने जान ली थी। यही कारण था कि लोककल्याण के तन्त्रमार्ग का प्रवर्तन हुआ । योग के द्वारा निर्दिष्ट छह चक्रों के वैशिष्ट्य को परिलक्षित करते हुए उनके ऊर्ध्वमुख और अधोमुख होने का दिग्दर्शन कराते हुए यह भी स्पष्ट किया कि अभ्युदय के लिए अधोमुख-चक्रों की साधना और निःश्रेयस के लिए ऊर्ध्वमुख चक्रों की साधना करनी चाहिए। इतना ही नहीं, अधोमुखचक्रों में से किसका ध्यान ऊर्ध्वमुख रूप में किया जाना चाहिये और क्यों, यह भी निर्देश किया है। चक्रों की उपासना में जप और ध्यान दोनों ही मान्य हैं किन्तु जिज्ञासापूर्ति, आकर्षणशक्ति, बुद्धि विकास, ज्ञानविज्ञानोपलब्धि, सिद्धि तथा अपने इष्टटेव की-स्वरूप, ऐश्वर्य, वैभव एवं सामर्थ्य मूलक विभूतियों का यथार्थरूप में अनुभव कर साधक किस प्रकार दिव्यता को पा सकता है, यह तान्त्रिक योग पर ही निर्भर है। जपयोग, मन्त्रयोग और तन्त्र . तान्त्रिक-योग में मन्त्र और उसके जप का विधान एक विशिष्ट स्थान रखता है। जप में केवल मन्त्रवर्गों का स्मरण ही पर्याप्त नहीं माना जाता है, अपितु प्रत्येक मन्त्र के वर्गों की मात्रा, काल, वर्ण, शारीरचक्रस्थिति, स्थानरूप प्राकार, उनका उत्पत्तिस्थान-कण्ठताल्वादिगत और प्रान्तर तथा बाह्य यत्नों का ज्ञान भी अपेक्षित है। मन्त्रान्तर्गत कुटों के व्यष्टि तथा समष्टिगत भेदों की भावना तथा पुट, धाम, तत्व, पीठ, अन्वय, लिंग और मातृका-रूप का चिन्तन भी आवश्यक माना गया है। मन्त्रवर्णों के सृष्टि, स्थिति और संहार रूप कर्म, तत्तत् कर्मों के शक्तियुक्त अधिपति एवं प्रत्येक वर्ण के स्वरूप का चिन्तन भी किया जाता है तथा पांच अवस्था, षट् शून्य, सप्त विषुव और नव चक्रों की भावना के साथ अपने मनोरथों का स्मरण करते हुए जो मन्त्रवर्णों का उच्चारण किया जाता है, उसे 'जप' कहा जाता है। इसे 'जपयोग' अथवा 'मन्त्रयोग' के नाम से व्यक्त करते हुए प्राचार्यों ने योग की प्रक्रिया को अत्यन्त रहस्यमय रूप प्रदान किया है। इस साधना-क्रम में प्रविष्ट साधक का जप-विधान अत्यन्त उत्कृष्ट बन जाता है और वह सिद्धि के इतने निकट पहुँच जाता है कि वहाँ संशय को कोई स्थान ही नहीं रहता। 'वरिवस्थारहस्य' कार श्री भास्करराय मखी ने इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है। मन्त्रयोग की विशेषता यह है कि इसमें शारीरिक-चक्रों को उदबुद्ध करने के लिये यौगिक क्रिया के साथ ही प्रत्येक चक्र अथवा स्थान विशेष के मन्त्रों का जप भी प्रावश्यक होता है। मुख्य रूप से ऐसा जप करने के लिये बीज-मन्त्रों का ही प्रयोग किया जाता है, साथ ही फल की अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए पाम्नाय एवं चक्रस्थान-विशेष का अनुसंधान करना भी तन्त्रशास्त्रों में निर्दिष्ट है। वैसे तो प्रत्येक स्वर और व्यंजन अपने आप में बीजमन्त्र ही हैं किन्तु परस्पर मातृका वर्णों का संयोजन करके उनके साथ शक्ति अथवा देव-भैरव के स्वरबीजों आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.iainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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