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________________ एकात्मकता के साये में पली-पुसी हमारी संस्कृति / ४९ से आयी विकृत परंपराओं के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया । इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता, अहिंसा-दृढ़ता थी जिसे उसने थाती मानकर कठोर झंझावातों में भी संभालकर रखा। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है वह निश्चित ही अनुपम माना जायगा । बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ पा भी गई पर जैनधर्म ने चरित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया । अब मात्र संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं था। पालि-प्राकृतअपभ्रश जैसी लोकबोलियों ने भी जनमानस की चेतना को नये स्वर दिये और साहित्यसृजन का नया प्रांगण खुल गया । इस समूचे साहित्य में एकात्मकता का जितना सुन्दर ताना-वाना हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है। अर्हन्तों और बोधिसत्वों की वाणी ने जीवन-प्रासाद को जितना मनोरम और धवल बनाया उतनी ही उनके प्रति आत्मीयता जाग्रत होती रही । फलतः हर क्षेत्र में उनका अतुल योगदान सामने आया। भावात्मक एकता की सृजनशक्ति भी यहीं से विकसित हुई। इसी बीच मगध साम्राज्य का उदय हुआ। छोटे-मोटे साम्राज्य उसमें सम्मिलित हो गये पर उत्तर-पश्चिमी भारत विखण्डित होने लगा। विदेशी आक्रामकों ने इस दुर्बलता का भरपूर लाभ उठाया और सिकन्दर जैसे यूनानी योद्धा ने भारत जैसी वसुन्धरा को विजित करने का संकल्प किया। मालव- क्षुद्रक जैसी परस्पर विरोधी जातियों ने और पुरु जैसे समर्थ राजा ने उसका डटकर मुकाबला किया । फलतः उसे वापिस जाना पड़ा । इन विदेशी आक्रमणों का कोई विशेष गंभीर प्रभाव भारतीय समाज पर नहीं पड़ा। हाँ, चन्द्रगुप्त मौर्य को राजनीतिक स्थिरता और एकता स्थापित करने के लिए पृष्ठभूमि अवश्य तैयार हो गई। वह कुशल प्रशासक और सही राष्ट्रनिर्माता सम्राट् था जिसने भद्रबाहु के साथ दक्षिण प्रदेश की यात्रा की और समाधिमरणपूर्वक शरीर त्याग किया। अशोक (268-69 ई. पू.) तो किसी एक संप्रदाय का होते हुए भी सम्प्रतिपत्तिवादी था। उसकी असाम्प्रदायिक मनोव त्ति, धार्मिक सहिष्णुता, अहिंसा, सद्धर्मप्रचार, सार्वभौमिकता, लोकधर्मपरिपालन आदि जैसे तत्त्व अशोक के मांगलिक कार्यों में अन्यतम थे। ब्राह्मण और श्रमणवर्ग बड़े प्रेमपूर्वक रहते थे। उनमें धर्मपरायणता अ हुई थी। मौर्यसाम्राज्य के पतन के बाद पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण साम्राज्य की स्थापना की। आन्ध्र-सातवाहन आये। जिन्होंने वैदिक संस्कृति का अच्छा खासा विकास किया। प्राकृत भाषा को विशेष प्राश्रय मिला। साथ ही अन्य धर्मों और भाषामों का भी विकास होता रहा। कलिंगराज खारवेल ने इस विकास-शृखला को और भी आगे बढ़ाया। इसके बाद शक, यवन, पह्लव और कुषाण आये। वे भी भारतीयता के रंग में समा गये । मेनान्डर, कनिष्क आदि का निदर्शन हमारे समक्ष है ही। अश्वघोष, नागार्जुन, हाल, घटसेनाचार्य आदि जैसे विद्वानों ने साहित्यिक क्षेत्र में पदार्पण किया। मृत्तिकला के क्षेत्र में गान्धारकला ने एक नयी दृष्टि-सृष्टि दी। मथुरा कला का भी अपने ढंग का विकास हुआ जहाँ जैन-बौद्ध-वैदिक तीनों सम्प्रदाय समान रूप से विकास करते रहे। धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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