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तूफ़ानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
यही हाल भोले, अज्ञानी और विवेकहीन व्यक्तियों का होता है। यद्यपि वे अपनी प्रात्मा का कल्याण करने के इच्छुक होते हैं, भव-सागर से पार उतरना चाहते हैं और अक्षय सुख की कामना रखते हैं, किन्तु सही मार्ग-दर्शन प्राप्त न होने के कारण यानी सच्चे धर्म का मर्म न समझ पाने के कारण वे धर्म के नाम पर ऐसा प्राचार-व्यवहार अपना लेते हैं और उसी पर अपनी आस्था का दीपक लेकर चल पड़ते हैं जो धर्म उन्हें अंत में प्रात्म-शांति, संतोष और उस सुख की प्राप्ति नहीं करा पाता, जिसकी आकांक्षा लेकर वे चलते हैं । इसलिये सर्वप्रथम आवश्यक है कि मुमुक्षु व्यक्ति सच्चे धर्म को समझे और उसके बाद पूर्ण प्रास्था सहित पाचरण करके चले। इसके लिये विवेक को जगाना अनिवार्य है, अन्यथा वह मुल्ला नसरुद्दीन के समान मूर्ख साबित होगा।
कहा जाता है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपनी सवारी के लिये गधा रखता था। एक बार वह गधे पर उलटा बैठा हुआ बीच बाजार में से जा रहा था। लोगों ने उसे देखा तो हँस पड़े और बोले
"मियाँ ! गधे की पूछ की तरफ मुंह करके क्यों बैठे हो ?' नसरुद्दीन ने बड़ी गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया
"पाप नहीं समझ सकेंगे कि मैं कितनी बुद्धिमानी से इस भीड़-भाड़ से भरे रास्ते पर चल रहा हूँ । जरा सोचो तो सही, मैं कितना चतुर हूँ ? इस तरह बैठकर मैं पीछे की ओर का ध्यान रख लेता हूँ और मेरा गधा आगे का रास्ता देख लेता है।"
विवेकहीनता और ज्ञान-रूपी नेत्रों के गलत उपयोग का यह एक उदाहरण है । मुल्ला नसरुद्दीन अपने नेत्रों का उपयोग कर तो रहा था लेकिन निरर्थक, जबकि पीछे देखते रहने से कोई लाभ नहीं था। गधा सामने देखता हुअा चल रहा था, किन्तु उसके पास विवेक या ज्ञान नहीं था । ऐसी स्थिति में वह कौनसी मंजिल की ओर पहुँचाता ? बस जिधर मुह उठाया, भटकता रहा।
___बंधुनो ! मैं आपसे यही पूछना चाहती हूँ कि क्या प्राज के अधिकांश मनुष्य ऐसा ही नहीं करते ? अज्ञान-रूपी गधे पर बैठकर अपने विवेक एवं ज्ञानमय नेत्रों का सही उपयोग न करके निरर्थक इधर-उधर भटकते रहते हैं । इस हालत में मुक्ति-मंजिल उन्हें कैसे मिलेगी? इसलिये आवश्यक यही है कि सर्वप्रथम वह अपनी इच्छित मंजिल तक पहुँचाने वाले धर्म के सच्चे मार्ग का ज्ञान प्राप्त करे और तदुपरान्त एकाग्र और दृढ़ आस्था के साथ उस पर बढ़ चले। भले ही धर्म के सही मार्ग पर चलते हुए कितनी भी विघ्न-बाधाएँ आएँ अथवा उन्मार्ग के प्रलोभन अपनी ओर आकर्षित करें, वह रुके नहीं, मुड़े नहीं और न ही अपना मार्ग बदले। अपितु अन्तर्मानस में पूर्ण आस्था रखते हुए निर्भयतापूर्वक यही विचार रखे:
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही लपस्वी है।"
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