________________
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
Jam Education International
अर्चना १०
द्वैध की ग्रन्थि, जो गहरी घुली थी, खुलने लगी। परिणामों के प्रोज्ज्वल्य की सत्वर गति उज्ज्वलता का वह क्रम किसी नियमित धनुपात पर तीव्रतम गति पर प्रारूढ होती है, कर्म - मल इतनी जिसके फलस्वरूप क्षणों में वह सध जाता है, जो वर्षों
गाणितिक पद्धति से नहीं नापी जाती। नहीं चलता । भावधारा जब शुद्धि की शीघ्रता से, तीव्रता से झड़ता जाता है, ही नहीं वरन् युगों तक नहीं सध पाता ।
उक्त बहिनों के एक छोटे से प्रेरणा वचन से एक महान् साधक को जो दिशा-बोध प्राप्त हुआ, उसने उसके जीवन को तत्क्षण ऐसा मोड़ दिया, जिसकी चामत्कारिक फलनिष्पत्ति से साधक सचमुच निहाल हो गया, साध्य सध गया, प्राप्य प्राप्त हो गया । नारी की उर्वर विचार-शक्ति का यह एक अनुपम उदाहरण है। निश्चय ही नारी शक्तिपुंज है। नारी को जो अबला कहा गया है, क्या वह पुरुष प्रधान समाज का व्यंग्य नहीं है? जब तक भगवान् बाहुबलि की स्मृति रहेगी, क्या ब्राह्मी और सुन्दरी विस्मृत की जा सकेंगी।
घटनाएँ बहुत हैं, लम्बे-लम्बे इतिवृत्त हैं, जिनमें नारी की गरिमा सर्वत्र निखरी है । सम्भव नहीं है, उन्हें प्रस्तुत किया जा सके। प्रतीक के रूप में केवल कुछ एक का संकेतमात्र किया जा सकता है ।
1
बाईसवें तीर्थंकर भगवान् श्ररिष्टनेमि के काल का प्रसंग है, जहाँ हम एक नारी पात्र का ओजस्वी व्यक्तित्व देखकर दंग रह जाते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के २२ अध्ययन में दो घटनाक्रम वर्णित है। पहला घटनाक्रम अरिष्टनेमि के विवाह का है अरिष्टनेमि यदुवंशीय राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। वे वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे । राजीमती भोजकुल के राजन्य अग्रसेन की कन्या थी । श्ररिष्टनेमि और राजीमती का विवाह निश्चित हुआ । एक विचित्र घटना घटी । श्ररिष्टनेमि विशाल बरात के साथ विवाह मंडप के समीप पहुँचे। उन्हें पास हो बाड़े में, पिजरों में बंधे पशुपक्षियों का चीत्कार करुण क्रन्दन सुनाई पड़ा। पूछने पर पता चला कि ये पशु-पक्षी उनके बरातियों के लिए आमिष भोजन तैयार करने हेतु हैं। यह सुनते ही हिंसा का विकरालरूप अरिष्टनेमि के समक्ष नाच उठा। उनका हृदय दहल गया। उन्होंने तत्काल निर्णय लिया कि किसी भी हालत में वे विवाह नहीं करेंगे। उन्हें बहुत कुछ सुझाया बुझाया गया, पर वे अपने निश्चय पर अडिग रहे ।
।
वह मन ही मन कहने लगी,
अब जरा राजीमती की दृष्टि से चिन्तन करें। राजीमती, जिसके मानस में विपुल भोगसंकुल स्वप्निल संसार का सागर लहरा रहा था. सहसा स्तब्ध हो गई। सुखमय स्वप्न के तार टूटने लगे, वह व्याकुल, व्यथित और विन होने लगी। किन्तु तत्काल उस महिमामयी नारी ने अपने को सम्हाला । उसकी प्राभ्यन्तर ऊर्जा जाग उठी अरिष्टनेमि जिस भोगमय संसार को परिय जान छोड़ चुके हैं, यह दुर्बलहृदया क्यों बने उसे क्यों स्वीकारे । अन्य यादवकुमारों में से किसी एक के साथ परिणयसूत्र में आबद्ध होने का प्रस्ताव उसने ठुकरा दिया। उसने उसी पथ का अनुसरण किया, जिस पर अरिष्टनेमि आगे बढ़े जा रहे थे। राजीमती ने वादववंशीय राजकुलवधू के स्थान पर त्याग तपोमयी, व्रतपरायणा श्रमणी के रूप में अपने को परिणत कर डाला । नारी की अपराजेय शक्ति का यह दिव्य रूप था ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org