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________________ अर्चनार्चन Jain Education International ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप डॉ० प्रेमसुमन जैन जैनसाहित्य में ध्यान के विभिन्न पक्षों का वर्णन प्रायः सम्यक् चारित्र के वर्णन के प्रसंग में आता है। जैनदर्शन में संक्षेपरूप में संसार-बन्धन का कारण श्रास्रव श्रौर बन्ध को माना गया है तथा संसार से मुक्ति के लिए संवर और निर्जरा को प्रमुखता दी गयी है । कर्मों की निर्जरा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को आधार माना गया है । सम्यक्चारित्र में तप की प्रधानता है। तप के प्राभ्यन्तर छह भेदों में एक भेद ध्यानतप भी है । इसी ध्यान का वर्णन जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में किया है ।' ध्यान पर स्वतन्त्ररूप से भी ग्रन्थ लिखे गये हैं । वस्तुतः जैनदर्शन में ध्यान आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकट करने वाला है । अतः ध्यान और ज्ञान में अटूट सम्बन्ध हैं । मध्ययुग के ११ वीं शताब्दी के जैनाचार्य शुभचन्द्र ने अपने ध्यानशास्त्र को ज्ञानशास्त्र का ग्रन्थ मानकर इसे 'ज्ञानार्णव' नाम प्रदान किया है । विषय की दृष्टि से वास्तव में यह ग्रन्थ ध्यान का समुद्र है । ध्यान के सभी पक्षों का इसमें विस्तार से वर्णन है । इसलिए प्राचार्य ने इसे 'ध्यानशास्त्र' भी कहा है --- इति जिनपतिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किचित् । स्वमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् ॥ आचार्य शुभचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ को 'योगप्रदीप' भी कहा है। उनकी दृष्टि से ध्यान एवं योग शब्द समान अर्थ को व्यक्त करते हैं । यद्यपि जैनपरम्परा में इन दोनों शब्दों का अपना अलग इतिहास भी है । आचार्य शुभचन्द्र एवं उनके ज्ञानार्णव के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ के सम्पादक पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री एवं अनुवादक पं. बालचन्द्र शास्त्री ने अपनी प्रस्तावनाओंों में पर्याप्त प्रकाश डाला है । 3 जैन योगशास्त्र की परम्परा में ज्ञानार्णव का विशेष स्थान है । ज्ञानार्णव में पूर्ववर्ती ध्यानविषयक सामग्री का सार प्रस्तुत किया गया है । इस कारण यह ग्रन्थ परवर्ती जैनाचार्यों के लिए श्राधार-ग्रन्थ बन गया है | आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के साथ इसका घनिष्ट सम्बन्ध है । आचार्य शुभचन्द्र का समय विद्वानों ने वि० सं० २०१६ से वि० सं० १९४५ के बीच माना है । ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र ने जिनसेन के प्रदिपुराण, रामसेनाचार्य के तत्त्वानुशासन, सोमदेव के उपासकाध्ययन एवं श्रमितगति के योगसारप्राभृत प्रादि पूर्ववर्ती ग्रन्थों के श्राधार १. जैन, प्रेमसुमन 'ध्यान सम्बन्धी जैन- जैनेतर साहित्य' -जिनवाणी विशेषांक २. कापड़िया, २० ला०; जैनसाहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ४, पृ० २२७ - २५५ ३. ज्ञानार्णव, सं० डा० ए० एन० उपाध्ये, सोलापुर, १९७६ की प्रस्तावना ४. वही, प्रस्तावना, पृ० ४७-५१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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