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________________ ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप / ६७ पर ध्यान के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला है। किन्तु उसके पूर्व बारह भावनाओं का वर्णन ग्रन्थ में किया है। शुभचन्द्र प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं कि यह मेरी रचना संसारताप के निवारण के लिए है। इससे अविद्या से उत्पन्न दुराग्रह नष्ट होगा । तभी समीचीन ध्यान की प्राप्ति होगी। वही वास्तविक आनन्द प्रदान करना इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है अविद्याप्रसरोद्भूतग्रह-निग्रहकोविवम् । ज्ञानार्णवमिमं वक्ष्ये सतामानन्दमन्दिरम् ॥ १११ प्राचार्य शुभचन्द्र अध्यात्मयोगी थे। अतः ध्यान का वर्णन करते समय सांसारिक सुखों को उन्होंने महत्त्व नहीं दिया। ध्यान कोई चमत्कार दिखाने के लिए अथवा इन्द्रियों के रसों की तृप्ति के लिए नहीं है। इस प्रकार की साधना संसार के कीचड़ में ही फंसाती है । राग-द्वेष से युक्त वृत्तियों की उपस्थिति में शुद्ध ध्यान नहीं हो सकता है। अत: बारह भावनाओं के द्वारा पहले अपने चित्त को निर्मल करना चाहिए । मिथ्या धारणाओं के छूटने पर ही ध्यान की भूमि में प्रवेश किया जा सकता है । अतः सम्यग्दष्टि होना ध्यान की प्रथम सीढ़ी है। यदि कोई साधक संसार के क्लेशों को नष्ट करना चाहता है तो उसे सम्यग्ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान का बीज ध्यान है । संसाररूपी समुद्र को लांघने के लिए ध्यान एक जहाज की तरह है भवक्लेशविनाशाय पिब ज्ञानसुधारसम् । कुरु जन्मान्धिमत्येतु ध्यानपोतावलम्बनम् ॥ ३॥१२ ध्यान की साधना के लिए संसार के स्वरूप को समझना आवश्यक है। जब तक संसार के कार्यों में सुख और ममत्व बुद्धि बनी रहेगी तब तक ध्यान का महत्त्व समझ में नहीं आ सकेगा। अत: अन्तःकरण में विवेक को जागृत करना होगा। प्राचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि तीनों लोकों में व्याप्त करने वाली मोहरूपी गाढ निद्रा को जो नष्ट करता है, वही ध्यानरूपी अमृत रस का पान कर सकता है। बाह्य पर पदार्थों से ममत्व बुद्धि को हटाकर ही ध्यान का आनन्द लिया जा सकता है। योगिजनों ने इस ध्यान के सिद्धान्त को स्वयं प्राचरित किया है । अतः उनसे ध्यान के स्वरूप को यदि सुना जाय तो चित्त निर्मल होता है। ऐसे गुणकारी ध्यान को जब आचरण में लाया जाता है तो संसार के सभी दु:खों से छुटकारा मिल जाता है पुनात्याकणितं चेतो दत्त शिवमनुष्ठितम् । ध्यानतन्त्रमिदं धीर धन्ययोगीन्द्रगोचरम ॥ ३॥२५ योगशास्त्र में ध्यान के स्वरूप आदि पर चिंतन करते हुए उससे सम्बन्धित अन्य बातों पर भी विचार किया जाता है। शुभचन्द्र ने ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान का फल, इन चारों पर विस्तार से चितन किया है। शुभचन्द्र लौकिक फल के लिए ध्यान का उपयोग करना ठीक नहीं समझते । अतः वे आध्यात्मिक जागति के लिए ही शुभध्यान का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं। वैसे ही आत्महितैषी ध्याता को वे प्रमुखता देते हैं, लौकिक योगी को नहीं। वे मानते हैं कि जो योगी व साधु ध्यान को जीविका का साधन बनाते हैं, उन्हें लज्जा पानी चाहिए। उनका ऐसा ध्यान कभी सार्थक नहीं हो सकता । यह ध्यान का दुरुपयोग है । ध्यान को, साधुवेष को आजीविका का साधन बनाना माता को वेश्या बनाने जैसा है। यथा आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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