SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अचानक बरसा अमृत / १५९ इन वर्षों में महासतीजी हमारे क्षेत्र से बहुत दूर हैं फिर भी समय-समय पर आपके दर्शन किये बिना जी नहीं भरता, महासतीजी साक्षात देवीस्वरूप हैं, हर समय शान्त व प्रसन्नचित्त रहती हैं। बातचीत के समय अथवा प्रवचन के दौरान आपके श्रीमुख से ज्ञान रूपी प्रभाव युक्त शीतल धारा उपस्थित लोगों को भावविभोर कर देती है। इनकी मैं क्या महिमा करूँ, मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं। युग के प्रमुख सन्तों ने, राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों ने आपके व्यक्तित्व के बारे में काफी कुछ लिखा है। जो लोग आपके सम्पर्क में आते हैं वे अपने को धन्य मानते हैं । मैं उन अनेकों में से एक हैं जिन्होंने आपकी कृपा से ध्यानयोग के क्षेत्र में कुछ प्राप्त किया है तथा अनेक विशिष्ट महानुभावों के सम्पर्क में आकर 'ध्यान' के विषय में विचार-विनिमय करने का अवसर प्राप्त हुआ है। अन्त में महासतीजी श्री श्रद्ध या अर्चनाजी के प्रति मंगल कामनायें करती हुई शत-शत अभिनन्दन करती हूँ । "कबीरा बादल प्रेम का हम पर वरण्या आई, अन्तर भीगी आत्मा हरी भरी बइ वनराई।" अचानक बरसा अमृत 0 श्री बी० एल० नागर, पुलिस इन्सपेक्टर, श्रीनगर (अजमेर) मैंने करीब छत्तोस वर्ष तक अपने ध्येय को पाने के लिये समर्थ गुरु की खोज की। देश-विदेशों में, पर्वत-कन्दराओं में खूब भटका किन्तु सफलता नहीं मिल सकी। जब मेरी नियुक्ति किशनगढ़ हुई, मैं बिलकुल निराश हो चुका था। साधु सन्यासियों से मेरा मन एकदम हट चुका था। सौभाग्य से एक दिन कुर्सी पर बैठे सामने की पहाड़ी का मनोहर दृश्य देख रहा था। अचानक मेरी निगाह पहाड़ी से उतरते हुए कृशकाय सन्त पर गई । पूर्व संस्कारों के कारण मैं सन्त तक पहुँच गया और प्रार्थना करके अपने घर ले आया। लेकिन उनके व्यवहार से मैं बहुत हैरान था। क्योंकि प्रत्येक हरकत में बचपन और असभ्यता की झलक थी। मैं सोच रहा था कि ये कितनी जल्दी घर से बाहर जायें, लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हई। मेरा इशारा पाकर मेरी पत्नी चाय का कप लेकर आई। महात्माजी ने दो घुट चाय पी और फिर मुझे देते हुए कहा “तू पी ले" यह सुनकर मेरे शरीर का तो खून ही जम गया । लेकिन पीये बिना कोई चारा भी नहीं था। मैंने विष की तरह बची हुई चाय को गले उतार लिया। तत्पश्चात् मैंने कहा भगवन् ! अब आप पधारो रास्ता बता दूं ? उन्होंने कहा, तुम म्हारे को का रास्ता बतायेगो, मैं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only Ww.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy