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________________ साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग / २८७ तेज श्वास लेने से तन और मन में अत्यन्त श्रम का अनुभव होता है, जिससे वह शिथिल हो जाता है तथा चेतना के प्रति जागरूकता की स्थिति घटित नहीं हो सकती। उस स्थिति में थकान व मूछी के कारण आने वाली जो तन्द्रारूपी शून्यता है, उससे अपने आप को बचाना कठिन हो जाता है। श्वास-प्रश्वास को उखाड़ने की अपेक्षा उसे लम्बा करने का अभ्यास करना चाहिए। धीमी अर्थात् मन्द श्वास धैर्य की निशानी है । श्वास जितना सूक्ष्म होगा, शरीर में उतनी ही क्रियाशीलता न्यून होगी। श्वास की निष्क्रियता मौन एवं शान्ति है । इसमें ऊर्जा संचित होती है और वह संचित ऊर्जा मन को देहाविष्ट बनाती है। जब श्वास शिथिल हो जाता है, तब शरीर भी निष्क्रिय बन जाता है। मन निविचार हो जाता है। जिस से कषाय की ग्रन्थियाँ भी पाहत होने लगती हैं। क्योंकि उस साधक में तीव्र रूप से वैराग्य, परद्रव्यात्मभिन्नता और और अन्तःप्रवेश की क्षमता उत्पन्न होती है । कायोत्सर्ग की साधना में श्वास-क्रिया मन्द हो जाती है, जिसके कारण जागरूकता बनी रहती है। शरीर की स्थिरता सधती है, चेतना निर्मल होती जाती है और इस स्थूल शरीर की सीमा का अतिक्रमण कर सूक्ष्म शरीर की घटनाओं का परिबोध होने लगता है। और स्थल शरीर के प्रति हमारी पहुँच या पकड़ कम हो जाती है, जिससे हम दुःख के उपादान तत्त्व तक पहुँच जाते हैं । यह एक अनुभूत तथ्य है कि यह शरीर दुःख को प्रकट करने का हेतु है, किन्तु उसे प्रकट करने का उपादान कारण नहीं है । उपादान, मूल कारण है-कर्मशरीर । कायोत्सर्ग की स्थिति में हमें दु:ख के उपादान का संदर्शन होता है, तब समूचा व्यक्तित्त्व भिन्न प्रकार का होता है। एक सत्य स्थिर होता है-चेतना के साथ जो कर्मशरीर है, उसे क्षीण करना है फलतः कर्म-परमाणुओं का भीतर पाना बन्द हो जाता है । चेतना का बाहर से सम्पर्क टूटता है। अपनी समूची शक्ति का नियोजन भीतर होता है । मन भी निर्विचार हो जाता है। स्थूल शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होकर सूक्ष्म शरीर-तैजस एवं कार्मण शरीर से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है । तेजस् शरीर से दीप्ति प्राप्त होती है। कार्मण शरीर के साथ सम्बन्ध संस्थापित कर भेद-विज्ञान का अभ्यास किया जाता है । इस तरह शरीर और आत्मा के ऐक्य की जो भ्रान्ति है वह मिट जाती है। द्रव्य और भाव के भेद को समझने के लिए कायोत्सर्ग के चार प्रकार प्रतिपादित हैं। 30 १. उत्थित-उत्थित २. उत्थित-उपविष्ट ३. उपविष्ट-उत्थित ४. उपविप्ट उपविष्ट १. उत्थित-उत्थित मुमुक्षु साधक कायोत्सर्ग मुद्रा में जब खड़ा-खड़ा ध्यान करता है, तब उसके अन्तर्मन की चेतना भी खड़ी हो जाती है। उसकी काया तो उन्नत रहती ही है, उसका ध्यान भी उन्नत होता है । वह आर्तध्यान और रौद्रध्यान का परित्याग कर धर्मध्यान व शुक्लध्यान में रमण करता है। यह कायोत्सर्ग सर्वोत्कृष्ट होता है । इसमें प्रसुप्त प्रात्मा जाग्रत होकर कर्मों ३६. प्राचार्य अमितगति, श्रावकाचार ८, ५७-६॥ धम्मो दीवो संसार समुख में वर्मती www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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