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मांगलिक कल्पवृक्ष | १२७ हुना कि आपके साथ मेरा ऐसा ही रिश्ता है जैसा वीणा के तारों का संगीत-लहरी के साथ होता है । मैं नियमित रूप से आपके दर्शनार्थ जाने लगी । आपके प्रवचन सुनती और किसी अनागत सुख के चिन्तन में खो जाती ।
मुझे गत बीस पच्चीस वर्षों से दौरे पड़ते थे। जब भी दौरा पड़ता मेरे दाँत भिंच जाते. मैं छटपटाने लगती और कभी-कभी तो मच्छित हो जाती। मुझे गुरुणी जी म० की सेवा का अवसर मिला और मेरी बीमारी सदा-सदा के लिए दूर हो गयी। मेरा हृदय श्रद्धासिक्त हो गया और घर की दीवारों में मेरा मन नहीं लगा। मैं तो साधना के आकाश में उन्मुक्त पक्षी के समान उड़ने का स्वप्न देखने लगी । मेरे परिवार में पति, दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं लेकिन फिर भी मन तो जैसे सारी सृष्टि को अपना घर बनाने की कामना करने लगा। विरोध का बन्धन मुझे जकड़ नहीं सका और मैंने दीक्षा का संकल्प ले लिया। डेढ़ वर्ष तक वैराग्यावस्था में मैंने जैनदर्शन की विधिवत् शिक्षा ली और पूज्य गुरुदेव पण्डितरत्न ज्ञानमुनिजी द्वारा कुबकलां में दीक्षा अंगीकार कर, गुरुवर्या के साथ संयम पथ पर चल पड़ी। तब से अब तक आपके श्रीचरणों पर चलते हुए प्रतिपल मैं असीम सुख और सन्तुष्टि अनुभव कर रही हूँ । मैं आपके दीर्घायु जीवन की मंगल कामना करती हूँ। आपके सुयश की चन्द्रिका सदैव चमकती रहे।
मांगलिक-कल्पवृक्ष । साध्वी सुशीला कुमारी
श्रद्धय गुरुवर्या अध्यात्मयोगिनी, काश्मीर-प्रचारिका, मालवज्योति श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' म० सा० की शिष्या बनकर मैं लोक और परलोक दोनों को सार्थक करने का प्रयत्न कर रही हूँ। मुझे उनके अलौकिक जीवन से प्रभावित कतिपय अद्भुत घटनाएँ याद आ रही हैं। मैंने सबसे पहला चमत्कार गुलाबपुरा में देखा । मेरी दीक्षा के उपरान्त विजयनगर से पूज्य श्रमणसंघीय यूवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. सा० और गुरुणीजी के साथ हम साध्वियाँ बड़ी दीक्षा के लिए गुलाबपुरा आये। जैसे ही हम स्थानक में पहुँचे, भूरा नामक एक लुहार बदहवास-सा अपने लगभग ९-१० वर्ष के पुत्र को लेकर आया। उसके हाथ में एक पत्र था। उसने कहा कि आज मेरे घर कोई बड़ा सेठ पाया था जो यह पत्र दे गया। इसमें लिखा हुआ है कि तेरे बेटे को जिसे भयंकर मिरगी का रोग है उसे महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. जब गुलाबपुरा पधारें तब उनके दर्शनलाभ लेना और मांगलिक सुनाना, वह ठीक हो जाएगा। म० सा० ने पत्र पढ़ा बिना
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