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जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १८५
की सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था । श्रमण भगवान् महावीर ने गर्भ में हलनचलन करने से माता को कष्ट होगा, जान कर हलन चलन बंद कर दिया था, किन्तु इससे माता को अपार चिन्ता हुई, जान कर पुनः हिलने-डुलने लगे। माता के उपकारों को स्मरण कर उन्होंने गर्भावस्था में ही यह प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। यह है मातृभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण । तत्कालीन समाज में यह मान्यता प्रचलित थी कि माता-पिता की सेवा करने से इहलोक और परलोक में शान्ति मिलती है ।४
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पुत्ररक्षण ही उसका सर्वस्व
माता का अद्भुत स्नेह जैनागमों में माता के
स्नेह का हृदयस्पर्शी वर्णन
मिलता है। जब कोई पुत्र प्रव्रज्या लेने की बात कहता था कि उसे सुनते ही माता मूच्छित हो जाती थी, चैतन्यावस्था में आने पर वह विभिन्न उपायों से समझा-बुझाकर उसे प्रव्रज्या लेने से रोकने का प्रयास करती थी। माता ही परिवार में ऐसी सदस्या थी, जिसे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय अपने पुत्र का जीवन था । माता अपने जीवन की बाजी लगाकर भी पुत्र की रक्षा करती थी, फिर भले ही उसका पुत्र हत्यारा, प्रत्याचारी, दुष्ट एवं अनाचारी हो। जैनयुगीन माता की यही इच्छा रहती थी कि वह अपने जीवन का उपयोग अपने पुत्र के संरक्षण में करे।
जैनागमों में मातृ-सेवा का अनुपम उदाहरण
यद्यपि बोद्ध धागमों में मातृ सेवा का उपदेश तो मिलता है, किन्तु मातृ-सेवा के विशद एवं प्रयोगात्मक उदाहरण नहीं मिलते; जबकि जैनागम 'विवागसुयं' में पुष्यनन्दी राजा के द्वारा की गई मातृसेवा का वर्णन मिलता है कि वह अपनी माता के पास जाकर चरण-वन्दन करता था, तत्पश्चात् शतपाक—सहस्रपाक तैलों से उसके शरीर की मालिश करके सुगन्धित मिट्टी से उबटन कर नहलाता था। फिर उसे भोजन कराता था। माता के भोजन कर लेने के बाद स्वयं भोजन करता था ।
माता की सम्पत्ति एवं प्रभुता
बौद्धागमों में माता की सम्पत्ति का उल्लेख है जो उसके पीहर से उसे प्राप्त होती थी । जिसे वह स्वेच्छा से व्यय कर सकती थी। गृहस्वामिनी भी वही हो सकती थी, जो किसी बच्चे की मां हो। तभी उसे परिवार की प्रभुता प्राप्त होती थी। सन्तानहीन पत्नी को गृहस्वामिनी नहीं माना जाता था।
४. (क) कल्पसूत्र
(ख) मायरं पिवर पोस एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं ताय ! जे पालेति य मावरं । गांग० १।३।२।४
५. तरणं सा धारिणी देवी कोट्टिमतलं सिसव्वं गेहि धसत्ति पडिया नायाधम्म० १।१।२७ ६. (क) बुद्दक० ९७
( ख ) थेरगाथा, पृ० २०६ -२०७
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