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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / १८० पर महिला अपने पति की चिता के साथ जल मरने जैसी प्रथा का पालन नहीं करती थी । उसकी स्थिति दयनीय नहीं थी। विधवाओं के जीवनयापन के साधन उस युग में विधवा स्त्री संसार से विरक्त होकर यदि स्वेच्छा से प्रव्रजित होती थी, तब तो उसके समक्ष जीवननिर्वाह का कोई प्रश्न नहीं था । ऐसा न होने पर निम्नोक्त तीन साधनों में से एक का अवलम्बन लेकर विधवा अपना जीवन यापन करती थी (१) पतिद्वारा अजित संपत्ति से, (२) जाति-कुल का संरक्षण पाकर, या (३) परपुरुष को ग्रहण करके । थावच्चा सार्थवाही ने पति के धन को ही जीवनयापन का साधन बनाया था । सोणा भी पति के प्रव्रजित होने पर उसकी सम्पत्ति की स्वामिनी हो गई थी । " ज्ञातिकुल का संरक्षण के ही विधवाएं लेती थीं, जिनके पास स्वतन्त्र जीवनयापन के पर्याप्त साधन नहीं होते थे। ज्ञातिकुल में माता-पिता, भाई-बहन, कुटुम्बी, स्वधर्मी एवं सगोत्रीय जिन विध बाओं के पास न तो पति द्वारा उपार्जित सम्पत्ति होती थी, और न ही जो ज्ञातिकुल से सम्पन्न होती थीं, उनका वैधव्यजीवन कष्टकारक होता था । चन्दा दरिद्र पिता की पुत्री थी, तथा दरिद्र पुरुष को व्याही थी। जिस समय वह विधवा हुई, निःसन्तान थी अतः उसे वैधव्यजीवन में भोजन - वस्त्रादि साधन भी नहीं मिलते थे । पति, पुत्र और ज्ञातिजनों से हीन पटाचारा को तो अनेक कष्टों से पूर्ण वैधव्यजीवन बिताना पड़ा था। सामान्यतया उच्चकुल की विधवा महिला परपुरुष का श्राश्रय कभी प्रव्रजित पुरुष की नवविवाहिता पत्नी अपने पति की अनुमति से लेती थी । पर यह प्रथा अधिक प्रचलित नहीं थी । २० किसी पुरुष लिए यह स्मरण कराया जाता था कि अभी उसकी पत्नी युवा है। पर कहीं वह परपुरुष के पास न चली जाए । विधवाओं का पुनर्विवाह यद्यपि वैदिककाल में विधवा के लिए पुनर्विवाह का तो नहीं, किन्तु सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए नियोग करने का उल्लेख मिलता है; क्योंकि उस समय सन्तानोत्पत्ति को अधिक १९. ( क ) तत्थणं बारवईए थाबच्चा नामं गाहावइणी परिवसइ, अड्ढा जाव अपरिभूया । -नायाधम्म० १।५।५८ (ख) बेरी अप० ३२६।२३१ २०. (क) दुग्गताहं पुरे ग्रासि विधवा च प्रपुत्तिका । नहीं लेती थी । कभीपरपुरुष को ग्रहण कर को प्रव्रज्या से रोकने के उसके प्रवजित हो जाने , बिना मित्ते हि जातीहिं, भत्तचोलस्स नाधिगं ॥ -- थेरी० ५।१२।१२२ । (ख) द्वे पुत्ता कालकता, पती च पंथे मतो कपणिकाय । माता पिता च भाता, उम्ति च एकचितकार्य । 1 खीणकुलीने कपणे अनुभूतं ते दुखं अपरिमाणं ।। वही १०।१।२१९-२२० २१. 'भारिया ते नवा ताय! मासा अन्नं जणं गमे... --- सूयगडांग० १।३।२५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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